Monday, April 09, 2007

क्यों पढ़े इन गीतों को - जयप्रकाश मानस

आत्मीयता की पुनर्स्थापना के लिए कशमकश

0 जयप्रकाश मानस
संपादक, सृजनगाथा डॉट कॉम


जय पाठक की कविता आत्मसंतोषी नहीं, असंतोषी है । उसके भूगोल में घर-संसार की पूर्णता के लिए छटपटाहट है । अजय पाठक की कविता अनात्मीय नहीं, वहाँ आत्मीयता की सुक्ष्म पुनर्स्थापना के लिए एक कशमकश भी है । पाठकीय मन आज की सामाजिक संबंधों की शुष्कता, प्रजातांत्रिक इकाईयों की बदचलनी और नये समय की कुटिल शक्तियों (बाजार, मशीनीकरण) से पीड़ित-प्रताड़ित जनजीवन वाले जनपद में पहुँच जाता है । उसकी अपनी छटपटाहट जनपद की छटपटाहट में एकाकार हो जाती है । तो अजय पाठक की जो अंसतोषी कविता है वह समकालीन मध्यमवर्गीय जिंदगी की अपूर्णता और प्रगति के बरक्स नयी-पुरानी बाधाओं से लिंक्ड हैं न कि उसकी काव्य-कला से । इन कविताओं को जरा गौर से सुनें तो नयी बाधा के रूप में बाजारवाद की धमक सुनाई देती है। और अपनी समग्रता में अब तक परफेक्ट नहीं हो सके इंसान के कुटिल आचरणों की विस्फोट भी, जो पुरानी बाधा है । इन सबों के बीच कविता की सीमा में जगह-जगह सावन, बादल, चाँदनी, पखेरु दिखाई देते हैं; जो केवल प्राकृतिक उपादान की तरह कविता में नहीं आ धमके हैं । सच मानें तो यह इंसानियत को प्राकृतिक यानी सहज, सरल, सरल यानी नेचुरल बनाने का कवि-ध्येय भी है ।

गीत गाना चाहता हूँ में सग्रहित गीतों में प्रायोजित पोज नहीं है, कोई सायास भंगिमा नहीं, कोई मसीहाई ठाठ नहीं, कोई कवि-सुलभ स्वप्निल आकांक्षा भी नहीं । डगर चलते कवि को जो कुछ दिख जाता है, या कवि को अपने घेरे में ले लेता है, वही काव्य-वस्तु का रूप धारण कर लेता है । वे अपने स्पष्टीकरण में कहते भी हैं – “ये गीत विसंगतियों के साक्षात्कार से उपजी भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति भी हैं ।” ये हड़बड़ी में उपजे गीत नहीं हैं । अनुभूतियों की सांद्रता में आयी मनोहारी रचनाएं हैं –

कई बरस तक मन के भीतर
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर से वही पखेरू
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

या फिर –

रामू-श्यामू के घर उनकी
घरवाली जब से आई ।
बँटवारे को लेकर दिनभर,
लड़ते हैं दोनों भाई ।

दरअसल इन गीतों में आम जन का समकालीन बोध मुखरित हुआ है । एक सचेत मामूली आदमी जीवन-पथ में चलते हुए तजुर्बे हासिल करता है । ये तजुर्बे प्रचलित संस्कारों, मान्य मूल्यों और सांस्कृतिक निषेधों के निकष ही होते हैं । यदि इन गीतों का गीतकार विशिष्ट मन या नवविकसित दुनिया का मन वाला कवि होता तो जाहिर है यहाँ सामान्य जनों की ओर से उमड़ने वाला पाठकीय आग्रह की संभावना कदाचित् क्षीण होती । ऐसे में यह गीत संग्रह ज्यादा से ज्यादा ड्राइंग रूम की सजावटी किताब बन पाती । वह मामूलियत ही मूल में है जिसकी उत्प्रेरणा में अजय पाठक ने अपनी इस किताब में हिंदी के प्रचलित खास छांदस शैलियों को अपनाया है । यहाँ गीत हैं, ग़ज़लें भी हैं । और दोहेनुमा कुछ काव्य पंक्तियाँ भी ।

इन छंदो को आम जन का बोध कहने के पीछे एक कारण और भी है और वह है - कविता के प्रचलित प्रतिमानों की पकड़ । इन दिनों कविता का मुख्य ट्रांसमीटर है – लोक-संस्कृति । फूहड़ आधुनिकता, प्रौद्योगिकी केंद्रित कुंठित परिवेश और उपभोक्तावाद के विरूद्ध लोक का बखान और बयान इधर हिंदी कविता में एक कारगर अस्त्र के रूप में उभर कर आया है । यह कविता ही नहीं साहित्य की सभी विधाओं में परखा जा सकता है । यह दीगर बात है कि गीतों में वह शुरू से ही संश्लिष्ट रहा है । ग्राम्य बिंबो, कथनों, मुहावरों और चीजों से हिंदी गीत को अलगाना लगभग कठिन है ।

तो डॉ. अजय पाठक की काव्य-भूमि छत्तीसगढ़ का ग्राम्यांचल है । - गीत गाना चाहता हूँ - में लोक-जीवन की छवियाँ यत्र-तत्र भिलमिलाती हैं । इस झिलमिलाहट की सतह में लोक-जीवन गहरे यथार्थ की परछाई भी है । यदि ऐसा न होता तो डॉ. पाठक जाने-अनजाने उस खतरे के शिकार भी हो जाते और तब उनके गीतों में लोक-वस्तुएं समकालीन कविता में फैशन की तरह प्रयुक्त दिखाई देतीं । यहाँ यह कहना लाज़िमी होगा कि गीतकार की सबसे बड़ी ताकत है - लोकराग एवं लोकलय, जो उनके यहाँ धीरे-धीरे विकासमान है । वे इन दोनों रंगों से अपने गीतों में शनै-शनै चमक भर रहे हैं –

अलगू भैया कुछ मत पूछो
हाल बुरे हैं गाँव के ।

पगडंडी पर शूल बिछे हैं,
दिशा-दिशा है धुँआ-धुँआ ।
नदियाँ सूखी पनघट सूना,
पत्थर-पत्थर, कुँआ-कुँआ ।

बरगद-पीपल सूख चुके हैं,
पंछी है बिन छाँव के ।

यहाँ इस और ऐसे अनेक गीतों में प्रयुक्त काव्य-वस्तुएँ सिर्फ किसी प्रतीक के रूप में नहीं अपितु उस लोक चेतना के दबाब में आयी हैं जो गीतकार की सांस्कारिक पूंजी है । यह पंगड़डी, यह कुँआ, ये पनघट लोक-संस्कृति की ही पगडंडियाँ, कुँआ और पनघट हैं, जहाँ भारतीय जीवन-परम्परा का अक्षय कोष भरा पड़ा है । यहाँ ‘अलगू’ शब्द अपने आप में एक प्रकाश-वलय है । उसके आलोक में बरबस प्रेमचंद याद आ जाते हैं । अतीत का वह भारतीय गाँव याद आता है । चौपाल का चित्र खिंच- खिंच जाता है । चौपाल के घनघोर असमंजस में भी अंततः न्याय की जयघोष सुनाई देती हैं । गीतकार ने कहीं भी पंचायती राज व्यवस्था की बात नहीं की है । टूटते हुए गाँव और उसकी समृद्ध परंपरा की बात भी नहीं छेड़ी है । फिर भी जुम्मन मियाँ की तस्वीर क्या इस एक शब्द ‘अलगू’ से नहीं उभरती हमारे स्मृतियों में ! यहीं गीतकार के शब्दानुशासन का अंदाज भी पता चलता है । और यही वह अंदाज भी है, जिसमें गीतकार के यहाँ स्मृतियाँ अभिव्यक्त होती हैं । गीत गाना चाहता हूँ की रचनाएँ भी यही सिद्ध करती हैं कि पुराने क्लासिकल साहित्य की उपयोगिता इस गद्यात्मक सदी में और विकसित होगी, घटेगी नहीं ।

कविता की समग्रता से चतुराई पूर्वक विलगायी नई कविता और इधर शुष्क से शुष्कतम होती जाती समकालीन गद्यात्मक कविता के नाम पर चाहे शिविरबाजी चरम पर पहुँच जाये । चाहे गीतों के साथ अस्पृश्य व्यवहार दिखाने वाले समीक्षकों की कुंभकरणी निद्रा भी न टूटे, फिर भी हिंदी गीत अपने मुकाम की ओर क्रमशः गतिशील बने रहेंगे । यही विश्वास अजय पाठक के गीत संग्रहों की खेपों से भी झलकता है ।

इधर समकालीन कविता की अपेक्षाकृत सरल तराजू में स्वयं को खरा सिद्ध करने के बजाय गीत की कठिन और दुर्धर्ष ज़मीन पर पाँव जमाने के लिए जिन गीतकारों को पहचाना जाना चाहिए उनमें अजय पाठक भी एक हैं । एक गीतकार के रूप में उनकी उपलब्धियों को जब कभी आँका जायेगा उसमें उनका यही निर्णय कारगर कारणों में गिना जायेगा । यद्यपि अजय पाठक की उपलब्धियाँ खोटी नहीं है, न वे छोटी हैं । छंद, लय, तुक आदि पर उनके वशीकरण का प्रभाव है । भाषा बहुकोणीय है । वाक्य विन्यास साफ-सुथरा है । कुछ स्थलों को यदि जानबुझकर नकार दें तो अभिरुचि भी लगभग दोषहीन । यहाँ भी वे उस साधारण मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी श्वेत-श्याम चरित्रों के लिए साधारण बना रहता है । दोनों गुणों से एक दूसरे की समीक्षा करते हुए और स्वयं को और अधिक पूर्ण बनाते हुए ।

जब हम साधारण मनुष्य को सभी कोणों से देखते हैं तो उसके आसपास उदासियाँ और हताशा पसरी दिखाई पड़ती हैं । यह आज का सच नहीं प्रत्युत साधारण मनुष्य का स्थायी सच है । हर कालवधि में साधारण मनुष्य़ अपनी उब, उकताहट, निराशा, सीमाओं के साथ जीता है । जागता भी है इसी की आवाज़ से । इस जागरण को अजय पाठक के गीतों में भी जब हम देखने का प्रयास करते हैं तो वह पहले पाठ में नहीं दिखाई देता परंतु दूसरे-तीसरे पाठ में वह अपने धुँधलकों को चीर कर सम्मुख आ खड़ा होता है । इस दृष्टि से अजय पाठक के गीतों में उदासी, हताशा की मोहरी बज रही है पर यह यथार्थ से पलायन-नाद नहीं बल्कि कवि की असमाप्त बेचैनी है जो पृथ्वी, परिवेश, परिवार और पर्सनल दुख की सतत् वृद्धि से पैदा हुई है । वेचैनी में हताशा और उदासी स्वाभाविक है । उनकी – पार्थ के सम्मुख- गीत का उदाहरण लेते हैं –

आजकल के देवता को
क्या भला अर्पित करें हम ।
पाप को वरदान हासिल
पुण्य ही निष्फल रहा है ।

एक गीत और लेते हैं – परिचय । यह परिचय दरअसल गीतकार अजय पाठक का निजी परिचय नहीं वह आम दुखी जन, हताश जन, उदास जन का परिचय ही है । वे कहते हैं –

दावानल के बीच नगरिया
चलकर आता-जाता हूँ ।
पीड़ा की अनवरत कथाएँ
गीत व्यथा के गाता हूँ ।

दरअसल इन उदासियों में संघर्ष के जुगनू भी टिमटिमाते हैं और यही टिमटिमाहट आम जन के भीतर सोया हुआ आशावाद है ।

मुझे अक्सर एक प्रश्न मथता रहता है । कविता में कितनी गोपनीयता हो सकती है और कितना खुलापन ? क्या सचमुच कविता में गोपन का स्पेस होना चाहिए । विज्ञान के शब्दों में कहें तो वह कितना भौतिक हो सकती है और उसका रसायन कैसा होना चाहिए ?

इसी अनुप्रसंग में अजय पाठक के एक गीत पर चर्चा लाजिमी है । कदाचित् मेरी राय की झलक भी आपको मिल जाये । पृष्ठ 71-72 में संग्रहित उनका गीत है- गजरा ।

गजरा टूटा
कजरा फैला
अस्त-व्यस्त हो गई बेडियाँ
बिंदिया सरकी
आँचल ढरका
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी
पायन की खनखन यारों
जेठ माह की भरी दुपहरी
बरस गया सावन यारो

कंगना खनका
संयम बहका
प्यासा-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी
बिछुआ सरका
और पाँव तक तन भीगा ।
बिखर गई बंधन की डोरी
निखर गया तन मन यारो

कुंकुंम फैला
रोली भीगी
अक्षत-चंदन गंध घुली ।
अलकें बोझिल
निद्रालस में
लगती हैं अधखुली-खुली
सांसों की वीणाएं गूंजी ।
दूर हुआ अनबन यारो

इस गीत में एकबारगी प्रणय की छवि नहीं उभरती पर अपनी भाव-भंगिमा में शुद्ध और निष्कलुश प्रणय की मुद्रा है यहाँ । यह संग्रह की अन्य सभी गीतों से वज़नी भी है । वज़नी इसलिए कि इस रचना में पाठकों के लिए अर्थों के मायावी संसार में भटकने और वास्तविक अर्थ को पकड़ने का सूत्र भी है। यहाँ सारे बिंबों को सर्वनिष्ठ बनाये बगैर कवि द्वारा रचे गये वास्तविक चित्र को नहीं पकड़ा जा सकता है । दरअसल यह प्रणय-क्षणों का रागात्मक श्लील चित्र है । श्लील इसलिए कि सब कुछ का अर्थ देने वाले शब्द निहायत श्लील और शांत हैं । उनमें कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं है । जीवन के स्थायी किंतु गोपन कार्य व्यापार की सांस्कारिक अभिव्यक्ति जिस कला के साथ पाठक ने दी है वह साबित करता है कि गीतकार के कदम ऊँचे पायदानों की ओर है ।

दरअसल कविता कुछ हद तक गोपन भी है । कविता अनकहा भी है । वह बिना कहे भी कुछ न कुछ कहना चाहती है । और शायद यही कविता को बहुकोणीय बनाती है । जो कवि या गीतकार कहता है वह अंतिम संप्रेषित अर्थ नहीं होता । उसमें ऐसा कुछ जरूर होता है जो नये अर्थों के साथ पाठकों तक पहुँचता है । हम इसके कारणों पर जाकर बिषयांतर नहीं होवेंगे । जैसा कि यह सच है तो कविता के अर्थ में यह एक रासायनिक परिवर्तन है । यह कविता का रसायन है । केवल भौतिक अर्थों या कवि द्वारा लक्ष्यित या निर्दिष्ट अर्थों की पहुँच के लिए तो महज कोई कवितायी नहीं करता । कम से कम एक गंभीर कवि तो कदापि नहीं । यदि यही करना है तो कवितायी में काहे को माथा गरम करना । कविता यहीं पर भाषण से इतर विधा है । वह संबोधन होकर भी शुष्क वार्तालाप नहीं है । यदि ऐसा है तो वह प्रलाप है ।

प्रगतिशील कविता में भाषा जनता तक पहुँचने की गरज से लगातार सरलीकरण का शिकार होती चली गयी है । वह कदाचित् अनपढ़, रीजिड़, नासमझ, दलित, दमित और पिछड़ी जनती तक पहुँची भी हो किन्तु वह अपनी तथाकथित कविताओं से उन रसों का वितरण नहीं कर सकी होगी जिसे कविता का अनिवार्य उद्देश्य कहा जाता रहा है ।

वैसे तो एक सच्ची कविता मन का आलाप है । मन का संताप है । बुद्धि का आक्रोश है । विचार का उद्घोष है । पर वहाँ केवल शब्द नहीं होते । वहाँ केवल अलंकार भी नहीं होते । मात्र अर्थ भी नहीं । इस सबसे से अधिक महत्वपूर्ण एक समग्र आल्हाद भी होता है । इस आल्हादकारी मनोक्रियाओं से मनुष्य अपने होने की सार्थकता से जुड़ता चला जाता है । या यह कहें कि कविता इतनी ही उत्प्रेरणा तो अवश्य है । डॉ. पाठक के पास साधारण मनुष्य के साधारण मनोभाव श्रृंखलायें होने के बावजूद उनके यहाँ विकसित होता कलात्मकता का आग्रह भी है । कला कवि की जादुगरी है । और थोड़ी सी भी जादुगरी एक सक्रिय कवि में नहीं है तो अच्छा है कि वह कविता के जनपद से प्रवासित हो जाये ।

गीत गाना चाहता हूँ में मात्र परपंरात्मक भावों का मनुहार ही नहीं है वहाँ उसे उसके अपने रचनात्मक सरोकार के लिए भी पढ़ा जाने का आमंत्रण भी है । कहते हैं कि सरोकारो से संश्लिष्ट कविता एक तरह से राजनीतिक कार्य व्यवहार भी है । इस संदर्भों में कविता कवि की निष्पाप, निद्वंद्व और आध्यात्मिक राजनीति भी है । अर्थात् कविता एक चेतनावान् और परिवर्तनकामी नागरिक की राजनीति है । कविता शब्दशिल्पियों की शाब्दिक और सांस्कृतिक राजनीति है । आज के दौर में राजनीति और कविता दोनों को अलग करके देखना ज़रा कठिन है । यह इसलिए नहीं कि आज का समय राजनीति से संचालित होता है । यह राजनीति स्वयं में दशा नहीं है, समाज की, युग की, पीढ़ी की दिशा भी है । इसलिए कला भी है और विज्ञान भी । जीवन की जरूरी चीज भी । उसे साधे बिना जीवन का कार्य-व्यापार कठिन है ।

भारतीय राजनीति पत्थरों का मरुस्थल है । वहाँ संवेदना की किलायें ध्वस्तीकरण के कगार पर हैं । विगत 5-6 दशको में स्वप्नों का चीरहरण बदस्तुर जारी है । विकास की सारी रणनीतियाँ एक-एक कर ध्वस्त होती चली जा रही हैं । आम भारतीय इससे सर्वाधिक पीड़ित और चिंतित हैं । यही चिंता अजय पाठक की कविता का तीसरा मुख्य़ टोन है । इस श्रेणी में उनके कई गीतों को एक बौद्धिक हस्तक्षेप के रूप में लिया जाना चाहिए । खासकर – बिखरे हुए घर-बार, सियासत, वीर लोग, गाँव, रस्ता कट जाएगा, मंजर देख ज़रा, हाल बुरे हैं, मर्यादा, प्रणय गीत कैसे गाएं, लोकतंत्र आदि शीर्षक वाले गीतों को । लोकतंत्र की एक बानगी देख ही लेते हैं जहाँ प्रचलित संविधान की कमजोरियों से रोज हो रही धोखाओं के विरूद्ध एक आक्रोश है –

भारत के मानसरोवर पर कौबे जब तक मंडरायेंगे
हंसो के हिस्सों की मोती ये मूरख चुगते जायेंगे
सब हंस व्यथाओं के चलते जब रोयेंगे पछतायेंगे
कौबो ने छोड़ दिया जिसको उस जूठन को ही खायेंगे
तब तक यारों मैं समझूँगा यह गंदा एक अखाड़ा है ।
यह लोकतंत्र इक दलदल है या सुअर का बाड़ा है ।

नये समय की प्रौद्योगिकी के धवल चरित्र पर हम विश्वास करना जान लें और इसी अनुक्रम में अभिव्यक्ति के तकनीक आधारित माध्यम इंटरनेट या अंतरजाल से छपे हुए कागज की तरह जरा सा भी जुड़ जायें तो वह सच्चे अर्थों में साहित्य और प्रकारांतर से हिंदी के लोकव्यापीकरण की दिशा में भी एक खास कदम सिद्ध होगा । श्रेय का श्रेय और प्रेय का प्रेय । ठीक उस तरह से जिस तरह से डॉ. अजय पाठक के नाम अंकित है । डॉ. अजय पाठक का यह गीत संग्रह छत्तीसगढ़ का पहला ऐसा गीत संग्रह है जो अंतरजाल पर भी अपनी कलात्मता के साथ कई देशों में पढ़ा जा रहा है । बकायदा प्रतिक्रिया के साथ भी – वाशिंगटन से रेणु आहूजा कहती हैं इसगीत का संग्रह प्रस्तुतिकरण निःसंदेश अपने आप में अनोखा प्रयास है । वे कबीरा नामक गीत की पंक्तियों –

पीर बहुत है भीतर गहरी । कैसे पाएं थाह कबीरा ।। पर कहती हैं – यह दो पंक्तियाँ मानव मन के अंतरमन की दशा का बखान करती हैं । अजय जी हम तो इतना ही कहना चाहेंगे कि बखान करे जो मन की पीरा । गीत वही सांचा कबीरा । जब कोई रचना नयी कुछ रचने की उर्जा से भरी हुई हो तो फिर क्या कहिए । और यह उर्जा प्रमाणित तौर पर अजय पाठक में हैं । अन्यथा रेणु जी दूर देश में बैठी ये पंक्तियाँ क्यों कर लिख सकती ।

21 वीं सदी के हिंदी गीतकारों की सूची में समीक्षक अपनी-अपनी दृष्टि से उन्हें चाहे किसी के भी आगे-पीछे सरका सकते हैं । पर उनका वह स्थान अब कोई छीन नहीं सकता जो उन्हें अभिव्यक्ति के नये और सर्वव्यापी माध्यम इंटरनेट ने दिया है और वह है उनकी इस कृति का अंतरजाल पर ब्लॉग तकनीक पर निर्मित संपूर्ण विश्व में प्रथम ऑनलाइन पूर्ण गीत संग्रह होना ।

(कृति के ऑनलाइन संस्करण के विमोचन अवसर पर समीक्षा आलेख )
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Thursday, March 15, 2007

परिचय

।। डॉ. अजय पाठक ।।

जन्मः
14 जनवरी 1960

शिक्षाः
विज्ञान, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक
प्राणीशास्त्र, हिंदी, भारतीय इतिहास एवं समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर
मुगलकालीन शिक्षा-साहित्य एवं ललित कलाओं पर पीएच.डी

प्रकाशित किताबें :
- यादों के सावन
- महुए की डाली पर उतरा बसंत
- जीवन एक धुएँ का बादल
- दशमत

प्रकाशनाधीनः
-व्यंग्यसंग्रह

उपाध्यक्षः
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छत्तीसगढ़

संप्रतिः
संयुक्त नियंत्रक, नाप तौल
छत्तीसगढ़ शासन

संपर्कः
लेन-3, विनोबा नगर, बिलासपुर
छत्तीसगढ़
मोबाइलः 98271-85785
दूरभाषः 07752-509217
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Thursday, August 24, 2006

पाषाण हूँ अब




फूल था, पाषाण हूँ अब

रंग मेरा धो गई हैं,
शीत में गिरती फुहारें ।
गंध लेकर के गई है,
लौटकर जाती बहारें ।

कोष मधु का पी गयी हैं,
तितलियाँ कुछ मनचली सी,
जीर्ण पत्तों की तरह,
उतरा हुआ परिधान हूँ अब,

फूल था, पाषाण हूँ अब

काम आता ही रहा मैं,
अनवरत संपूर्तियों के ।
आरती बनकर जला हूँ,
सामने जिन मूर्तियों के ।

एक पल को ही बुझा तो,
कोप का कारण बना मैं ।
बोध सारा खो गया हो,
अस तरह अंजान हूँ अब ।

फूल था, पाषाण हूँ अब

हाँ कभी था मैं धरा का
जगमगाता वह सितारा,
सामने जिसके दिवाकर का सभी आलोक हारा ।

आज अंबर की निशा के
गर्त में आकर पड़ा मैं,
जो अंधेरों में घिरा हो
वह जटिल अज्ञान हूँ अब

फूल था, पाषाण हूँ अब ।

By- www.srijangatha.com

गीत गाना चाहता हूँ
आज मन की रुद्र वीणा को,
बजाना चाहता हूँ ।
मैं तुम्हारी अस्मिता के गीत,
गाना चाहता हूँ ।

आज बरसों बाद सुधियों की,
नई खिड़की खुली है ।
तारिकाएँ झिलमिलाती,
चाँदनी-रस में घुली है ।
प्राण है बिलकुल अकेला,
मंदिरों की मूर्तियों-सा ।
इसलिए उसको कहानी,
मैं सुनाना चाहता हूँ ।

कौन जान कब तलक है
आज पलकों पर सवेरा
कालिमा की रात लेकर
आ न जाए फिर अँधेरा ।
आज माटी के दीयों में
भावना की बातियों से
रोशनी का एक दीपक
मैं जलाना चाहता हूँ ।


दृष्टि का सूरज सनातन
आज बादल में घरा है
हर तरफ अंधड़-बगूले
रातभर सावन गिरा है ।
प्यास जागी है अधर पर
कंठ सूखे जा रहे हैं,
तृप्ति पाने को सुधा की
बूँद पाना चाहता हूँ ।


By- www.srijangatha.com

देश में




इस कदर परिवर्तनों का दौर है परिवेश में,
आदमी दिखता नहीं है आदमी के भेष में ।

रक्त, भाषा, जाति, मज़हब पर बंटा है आदमी,
अस्मिता उलझा हुआ है आपसी विद्वेष में ।

आग बढ़ती जा रही है आँधियों के साथ ही,
युक्ति खोजी जा रही है शांति के संदेश में ।

युद्ध को उन्मत मानव क्यों समझ पाता नहीं,
युद्ध ही बाक़ी बचेगा युद्ध के अवशेष में ।


By- www.srijangatha.com

हर जगह

चाँद-परियों की कहानी हर जगह,
एक गुड़िया, एक नानी हर जगह ।

इश्क काँटों से गुज़रता हर क़दम,
फूल-सी खिलती जवानी हर जगह ।

वस्ल पहले, फिर जुदाई रूह की,
एक राजा, एक रानी हर जगह ।

इस जमीं पर एक था कान्हा कभी,
अब कहाँ मीरा दीवानी हर जगह ।

ताज है, सरताज अब भी प्यार का,
है कहाँ ऐसी निशानी हर जगह ?


By- www.srijangatha.com

बाते कर तलवार की


मृगनयनी के नयन कटीले,
कुंतल केश, सिंगार की ।
गुलशन गुलचें और गुलों की,
भंवरे और बहार की ।
महासमर में क्यों करता है,
बातें यह बेकार की ।

मृगनयनी के नयन कंटीले,
कुंतल केश, सिंगार की ।

सागर की लहरों पर उठता,
कैसा घोर उफान यहाँ ।
देख इधर आने को आतुर,
लगता है तूफ़ान यहाँ।
गिनता है क्यों आज लहर को,
चिंता कर पतवार की ।

हाथ मिलाने से क्या होगा ?
अपना सीना ठोंक ज़रा ।
अपनी ऊर्ज़ा संचित कर ले,
और समर में झोंक ज़रा ।
गीत अमन के फिर गा लेना,
बातें कर तलवार की ।

घर- घर में साहस का परचम,
गाँव, गली, चौबारों के ।
आशा के नवदीप जला दे,
चौखट पर अँधियारों के ।
अब चिंतन का समय कहाँ है ।
बेला है संहार की ।

किसी रूपसी के यौवनकी,
चर्चा करना व्यर्थ यहाँ ।
कोलहल में किसी गीत का,
रह जाता है अर्थ कहाँ ?
समर यहाँ घनघोर छिड़ा है,
मत कर बातें प्यार की ।

मृगनयनी के नयन कटीले,
कुंतल-केश, सिंगार की ।



By- www.srijangatha.com

सुन ले मेरे


तेरे भीतर ही काबा है, तेरे भीतर काशी रे,
क्यों बनता है पीर पयंबर हठयोगी सन्यासी रे ।

धर्म वही जो धारण करके मानवता का मान बढ़े,
और इसी के लिए हुए थे, राम यहाँ बनवासी रे ।

परमारथ ऐसे करना कि हरदम इसकी चाह रे,
जैसे प्रियतम हों अंखियों में अंखियाँ फिर भी प्यासी रे ।

ऊँच-नीच की बात नहीं कर, सब हैं एक समान यहाँ,
धरती माता के बेटे हैं इसके सभी निवासी रे ।

परमारथ ही महाधरम है, बाक़ी सब है व्यर्थ यहाँ,
रामानंदी, नाथ, अधोरी या फिर मौन-उदासी रे ।


By- www.srijangatha.com

चाँदनी


बह रही है चाँदनी जैसे पिघलकर,
चाँग भी चलने लगा थोड़ा सम्हलकर ।

ख़्वाहिशें रंगीनियों की मुंतज़िर थीं,
याद ने दस्तक दिए कपड़े बदलकर ।

है अजब-से रंग में डूबा समंदर,
और लहरे बह रहीं थोड़ा उछलकर ।

है फिज़ाओं में वही खुशबू घुली सी,
लग रहा वह आ गए जैसे टहलकर ।

वस्ल की नाकामियों का हश्र है कि,
एक बच्चा रो रहा जैसे मचलकर ।

तेज़ लहरें फिर जिगर को धो गई हैं,
जख्म सारे आ गए बाहर निकलकर ।


By- www.srijangatha.com

मौन हूँ मैं


मौन हूँ मैं, मौन हो तुम !
मैं व्यथा हूँ, कौन हो तुम ?

मैं गहन संवेदना की,
बात तुमसे रह रहा हूँ ।
रिक्त अंतर है, उसी की-
शून्यता को भर रहा हूँ ।
चाहता विस्तार हूँ मैं,
किन्तु केवल गौण हो तुम ?

साधना के पंथ पर मैं,
चल रहा हूँ पग पढ़ाए मैं,
चल रहा हूँ पग बढ़ाए ।
चाहता हूँ इस विजन में,
साथ कोई और आए ।
जानकर मेरी विकलता,
अब भला क्यों मौन हो तुम ?

देख लो मुझको निकट से,
अस्मिता मेरी वही है ।
रंग मेरा है पुराना,
रूप भी बिल्कुल वही है ।
कल्पना में रंग भरते,
स्वप्न देखा जो,
मौन हो तुम । मौन हूँ मैं,

मैं व्यथा हूँ, कौन हो तुम ?


By- www.srijangatha.com

मेरे कवि



मेरे कवि तुम कब सोते हो
कलम चलाकर रात-रात भर,
जगती के कल्मष धोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो

वंचित इच्छाओं की खातिर,
तुम पाते हो कष्ट अपरिमित ।
सोचा करते हो शोषण की,
काया कैसे होगी सीमित ।
हँसते हो निष्प्राण जगत पर,
और द्रवित होकर रोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो

कंचन वर्ण कुसुम कलियों का,
सौरभ-गंध लिए तन-मन में,
ताल, सरोवर, नदियाँ, झरनें,
विचरण करते हो गिरि-वन में ।
अपलक देखा करते हो तुम,
और वहीं पुलकित होते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो

नीति, मूल्य, मर्यादा ढहती,
सुखवादी भौतिक धारा में ।
वैभव के हाथों बंदी है,
मानवता जैसे कारा में ।
क्या होगा यह सोच-सोच कर,
तुम कितने व्याकुल होते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो

कभी गीत के छंद-छंद की,
रचना करके गान सुनाते ।
योगी और वियोगी मन को,
संबल देखवे बोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो

रहते हो कल्पित संसृति में,
जिसके सिरजनहार तुम्हीं हो ।
उसके संहारक हो तुम ही,
पोषक-पालनहार तुम्हीं हो ।
उसके संहारक हो तुम ही,
पोष्क-पालनहार तुम्हीं हो ।
मिलन-विरह की इस दुनिया में,
दो पल का सुख भी खोते हो ।
मेरे कवि तुम कब सोते हो


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थकी दुपहरी साँझ ढली रे


श्रम का सूरज अस्ताचल में,
बैठ गया जाकर सुस्ताने ।
दूर क्षितिज के तारा पथ से,
लगी चाँदनी आने-जाने ।
ठंडी-ठंडी वहा चली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे ।

लौट चले हैं थकन भुलाने,
परदेशी पंछी बेचारे ।
कलरव का नवताल मुखर है,
डाल-डाल बैठे हैं सारे ।
लगती यह गुंजार भली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे ।

राह-राह पर अब लगती है,
पगध्वनियों की आहट मद्धिम ।
जैसे तोड़ रहा है कोई,
साँसों की सीमाएँ अंतिम ।
मौन रही सुनसान गली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे।


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वही पखेरू


कई बरस तक, मन के भीतर,
बैठा रहा अबोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-जोर से बोला ।

धीरे-धीरे खामोशी की,
टूटी है तनहाई,
सपने सारे जाग उठे हैं,
ले-ले कर अगड़ाई ।
तेज़ हवाएँ चली,
पेड़ का पत्ता-पत्ता होला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सर्द हवाएँ सम्मोहित कर,
बाँ गई बंधन में ।
चांदी-जैसी धूप सुबह की,
बैठ गई आँगन में ।
सुधइयों ने चुपचाप कथा का,
पट धीरे से खोला ।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

मधु के दिन कितने बीते हैं ,
कितनी ही पतझारें ।
जितनी चंद्रकलाएँ देखीं,
उतने टूटे तारे।
आँखों पर आ कर के ठहरा,
फूलों वाला डोला।
आज भोर में वही पखेरू,
ज़ोर-ज़ोर से बोला ।

सपना देखा
भूखे-प्यासों की बस्ती है,
तू भी कोई अपना देख ।
भूख तो बैठ कहीं पर,
दाल-भात का सना देख ।

तुझ पर रहमत है अल्ला की,
अब तक भी तू ज़िंदा है ।
जो भूखा है पाँच दिनों से,
उसका आज तड़पना देख ।

तेरा शक्कर तेरा सीधा,
हलुआ खाते पंडित जी ।
बैठ वहीं चुपचाप जमीं पर
राम नाम का जपना देख ।

तेरे मुंह से लिया निवाला,
वे तुझसे भी भूखे हैं ।
भूखे श्वानों को रोटी पर,
फिर से आज झपटना देख ।

आज पेट की ज्वाला में जो,
लपटें उठती गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी गिरती हैं ।
उसकी भट्ठी में जीवन का,
लोहे-जैसा तपना देख ।


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गजरा टूटा


गजरा टूटा, कजरा फैला,
अस्त-व्यस्त हो गई बेड़ियाँ ।
बिंदिया सरकी, आँचल ढरका,
धुली महावर लगी एड़ियाँ ।
साँसों की संतूर बजी थी,
पायल की खनखन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कंगना खनका, संयम बहका,
प्यास-प्यासा मन भीगा ।
चूड़ी टूटी, बिछुआ सरका,
और पाँव तक तन भीगा।
बिखर गई बंधन की डोरी,
निखर गया तन मन यारों....
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।

कुंकुंम फैला,
रोली भीगी,
अक्षत-चंदन गंध धुली।
अलकें बोझिल, निद्रालस में,
लगती हैं अधखुली-खुली,
सांसों की वीणाएँ गूंजी ।
दुर हुआ अनबन यारों ।
जेठ माह की भरी दुपहरी,
बरस गया सावन यारों ।


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पार्थ के सम्मुख


सृष्टि में सर्जना का,
दौर ऐसा चल रहा है।
पार बैठा है अँधेरा,
और दीपक जल रहा है ।

कौन किसके साथ,
कैसा मीत, क्या रिश्ते यहाँ ।
पूछ मत अपना बनाकर,
कौन किसको छल रहा है

जड़ हुई जाती यहाँ,
संवेदना को देख ले ।
फूल-सा मन किस तरह से,
पत्थरों में ढल रहा है ।

आजकल के देवता को,
क्या भला अर्पित करें हम ।
पाप को वरदान हासिल,
पुण्य ही निष्फल रहा है ।

धर्म तो संघर्ष का ही,
नाम है जैसे यहाँ,
पार्थ के सम्मुख हमेएशा,
कौरवों का दल रहा है ।


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हम प्रणय गीत कैसे गाएँ


हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ

जब चारों ओर निराशा हो,
सन्नाटा और निराशा हो ।
मन आकुल हो जब दीन-हीन,
तन बेसुध भूखा-प्यासा हो ।
रोदन की हाहाकारों में,
तुम कहते हो कि मुस्काएँ ।
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

जलता हो भीतर दावानल,
लोहा भी जाता उबल-उबल ।
मथ सागर को मँदरांचल से,
पाते हैं केवल महा गरल ।
इस महाभयंकर पीड़ा को,
हम विषपायी हो सह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

अंतर में केवल रहा क्लेश,
अब नहीं यहाँ कुछ बचा शेष ।
पथ निर्जन, बंजर और कठिन,
आँखें हैं श्रम से निर्निमष ।
क्या संभव है कि ऐसे में,
यह अधर भला कुछ कह पाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

घेरे हैं चार दिशाओं से,
जनजीवन की यह आकुलता ।
वह शापित कारक और व्यथा,
वह निर्बलता यह दुर्बलता ।
जब जीवन, ज्वाला में जलता,
क्या गाल बजाते रह जाएं ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?

इस परधीन-से जीवन में,
अब हर्ष रहा किसके मन में ?
बस गयी विकलता ठौर-ठौर,
कस गए नियति के बंधन में ।
इस अवसर पर कुछ संभव है,
अवरोधक थोड़े ढह जाएँ ?
हम प्रणय-गीत कैसे गाएँ ?



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उसने देखा


उसने देखा आज हमारी आँखों में,
जैसे बिजली चमकी हो बरसातों में ।

सहारा ने सागर का पानी सोख लिया,
ऐसा ही एहसास हुआ जज़्बातों में ।

तन्हाई में रहना अच्छा लगता है,
खुद ही से बातें करते हैं रातों में ।

आँखों में रंगीन फ़िज़ाओं का मंज़र,
सच्चाई को ढूँढ़ रहा है बातों में ।

रूह तलक महके हैं ऐसा लगता है,
कोई खुशबू घोल गया है साँसों में ।



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सपने सजाऊँ


आँख में सपने सजाऊँ
प्रेम की बाती जलाऊँ,
कौन-सा मैं गीत गाऊँ, यह समझ आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।


चाँदनी बेचैन होकर,
देखती है राह कब से ।
खुशबुओं से तर हवाएँ,
पूछती हैं बात हमसे ।
लाज के परदे हटाओ,
दूरियाँ अब तो घटाओ,
रूप के लोभी नयन से अब रहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।


आज खाली है जिगर में,
प्रीत की पीली हवेली ।
बन गई अन्जान सारी,
ज़िन्दगी जैसे पहेली ।
आज मन में नेह भर दो,
प्राण को संतृप्त कर दो,
तन-बदन की इस जलन को अब सहा जाता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुम्हारे बिन सँवर पाता नहीं है ।


ज़िदगी एक दूसरा ही,
नाम है जैसे हवन का ।
होम करने को मिला हो,
एक पल जैसे मिलन का ।
ध्येय सारे छोड़ आओ,
बंधनों को तोड़ आओ,
वक्त जालिम है प्रिये, वह लौट कर आता नहीं है ।
गीत का मुखड़ा तुमहारे बिन संवर पाता नहीं है ।


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मधुपान करा दो


जलते वन के इस तरुवर को,
पावस का संज्ञान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

सुख-दुख के ताने-वाने में,
उलझा रहा चिरंतर...दुर्गम पथ पर,
चोटिल पग ले,
चलता रहा निरंतर....
जीलित हूँपर, जीवन क्या है
इसका मुझको भान करा दो,
आज प्रिये मधुपान करा दो ।

थके हुए निर्जल अधरों में,
फिर से प्यास जगी है ।
सुलग रही यह काया भीतर,
जैसे आग लगी है ।
देको मेरी ओर नयन भर,
तृष्णा का अवासान करा दो ।

जैसे दूर हुए जाते हैं,
हम खुद ही अपने से ।
अच्छे दिन जो बीत चुके हैं,
लगते हैं सपने-से ।
मन में श्याम-निशाएँ गहरी,
उसका एक विहान करा दो ।
आज प्रिये मधुपान करा दो ।


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मर्यादा


अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी...शोख अदाएँ चंचल ।
उनकी बातें ब्रह्म-वाक्य है,
अपनी बोली बात अनर्गल ।

आँखों में लाली विलास की,
दिखती है, खाली गिलास की ।
ए, सी, कमरा मुर्ग-मसल्लम्,
होठों पर बातें विकास की ।
उनकी आमद भाग्य जगाए,
अपना दर्शन.. महा अमंगल ।

देश-प्रेम की बात करे हैं
भीतर में उन्माद भरे हैं ।
उनके षडयंत्रों के चलते,
जाने कितने लोग मरे हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं ।
उनके आँसू गंगाजल हैं,
अपनी.. बहते नाली का जल

नैतिकता के पाठ पढ़ाएँ,
घर को सोने से मढ़वाएँ ।
अपने स्वारथ की वेदी पर,
समरसता को भेंट चढ़ाए ।
उनका भाषण अमर गान हैं,
अपना शब्द-शब्द विश्रृंखल ।
अपनी मर्यादाएँ फूहड़,
उनकी... शोख अदाएँ चंचल


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गहरे पानी में

गहरे पानी में पत्थर मत फेंको,
ऐसा करने से हलचल हो जाती है ।
झिलमिल पानी में लहरें उठती हैं,
ये लहरें चलकर दूर तलक जाती हैं ।

पत्थर तो आखिर पत्थर होता है,
क्या रिश्ता उसका जल से या दर्ऱण से ।
निर्मोही जिससे टकराता है,
उसके अंतर से आह निकल जाती है ।

ठहरे पानी में कंपन की पीड़ा,
उसके भीतर का मौन समझ सकता है ।
सागर से गहरे-गहरे अंतर में,
भीतर ही भीतर और उतर जाती है ।

पर, लहरों का तो जीवन होता है,
जो अपनी बीती आप कहा करती है ।
इनकी भाषाएए आदिम भाषाएँ
हर बोली इनकी अनहद कहलाती है ।

ये लहरें जो कुछ बोला करती हैं,
मैं उन शब्दों पर ग़ौर किया करता हूँ ।
कुछ व्यक्त हुई उन्मत्त हिलोरों में...
कुछ बातें उनके भीतर रह जाती हैं ।

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पहली किरण

हिल गए निर्णाण सारे,
नींव ढहती जा रही है ।
प्राण के नेपथ्य से फिर,
आज कोयल गा रही है ।

काँपते तन को लिए मैं,
आज बेसुध-सा खड़ा हूँ ।
अण्डहर के बीत कोई,
एक पत्थर-सा पड़ा हूँ ।
और ऊपर से प्रलय की,
धार बहती जा रही है ।

आज सुधियों में उभरती,
एक भूली-सी कहानी ।
और नयनों से उमड़कर,
बह गया दो बूँद पानी ।
बंधनों की फिर सरकती,
डोर छूटी जा रही है ।

भोर ही पहली किरण है,
लुप्त हैं नभ के सितारे ।
शून्य मन की चेतना है,
मौन हैं आंगन-दुआरे ।
भोर लंबी वेदना की,
बात कहती जा रही है ।



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माया

माया !
अद्भूत रूप द्खाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।

कभी नेह का रंग चढ़ाकर,
भरमाए आँखों को ।
रुचिर-सरस नवगंध सनाए,
महकाए साँसों को ।
जितनी बार निहारें उसको,
उतनी और सुहाए ।
माय अद्भुत रूप दिखाए !

मन के पोकर में लहराए,
भोली प्राण पछरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसरिया,
उसके चारों ओर फिराए,
माया एक रसिरया ।
मधुर फांस के फंदे डाले,
बैठी जाल बिछाए ।
माया अद्भुत रूप दिखाए !



सुनेपन का लाभ उठाकर,
आए शांत भुवन में ।
मंथर पदचापों को धरते,
पहुँचे सीधे मन में ।
दिन भर उन्मत करे ठिठोली,
सांझ हुए सकुचाए ।

माया !
अद्भुत रूप दिखाए,
ज्यों बादल में बिजली चमके
और पुनः छिप जाए ।


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Thursday, August 10, 2006

लोकतंत्र


जब तक
भूखे की रोटी का इल्हाम नहीं,
इंतज़ाम नहीं ।
दर-दर फिरते
बेकारों के हाथं को,
कोई काम नहीं ।


मेहनतकश लोगों के हाथो
मेहनत का वाजिब दाम नहीं ।
जब तक प्रतिभा का
यथायोग्य आदर,
उनका सम्मान नहीं ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
यह संविधान
इक धोखा है ।
निरर्थक बातों से भरा हुआ
केवल काग़ज़ का पौधा है ।

जब तक हत्यारे
संसद की कुर्सी पर
बेसुध सोयेंगे ।
हम लोकतंत्र की
लाशो को अपने
कंधे पर ढोयेंगे ।

जब तक प्रतिनिधि
बन कर यह ढोंगी
सज्जन का भेष धरायेंगे ।
यह नर-पिशाच्
मानवता की अस्थि
और मज्जा खायेंगे ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
संसद कचरे का डब्बा है
यह लोकतंत्र के माथे पर
गहराता काला धब्बा है ।

भारत के
मानसरोवर पर
कौवे जब तक
मंडारायेंगे,
हंसों के हिस्सों के मोती
ये मूरख चुगते जायेंगे ।

सब हंस व्यथाओं के चलते
जब रोयेंगे पछतायेंगे।
कौबों ने छोड़ दिया
जिसको,
उस जूठन को ही खायेंगे ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
यह गंदा एक
अखाड़ा है ।
यह लोकतंत्र इक दलदल है ।
या फिर सुअर का बाड़ा है ।


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अंतिम पहर

रात के अंतिम पहर में,
आस का दीपक जलाए ।
देर से कोई खड़ा है,
द्वार पे कंधा टिकाए ।


बोलता भी है नहीं वह,
डोलता भी है नहीं वह ।
शब्द जैसे पी गया,
मुँह खोलता भी है नहीं वह ।
कौन जाने कौन होगा ?
मैं पुकारूँ तो लजाए ।

आँख लगती भी नहीं है,
और जगती भी नहीं है ।
सामने सब कुछ निहारे,
और थकती भी नहीं है ।
क्या बताएँ किस लिए वह,
रात भर हमको सताए ?

रोशनी है झिलमिलाती,
तारिकाएँ गीत गातीं ।
ओस में भींगे सुमन हैं,
और कलियाँ खिलखिलातीं ।
आज फूलों के अधर से,
गीत कोई गुनगुनाए ।


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पुण्य क्या है पाप क्या है ?

होम करते घर जलेंगे ।
देवता हमको छलेंगे
यह नियति है सृष्टि का तो,
फिर भला संताप क्या है ?


पूछता हूँ मैं जगत से,
पुण्य क्या है पाप क्या है ?


देह धर्मो से अलग यह,
मन कभी होता नहीं है,
और अपनी अस्मिता को,
वह कभी खोता नहीं है ।
इसलिए तो प्राण जीवित ।
नैन में अभिसार जीवित ।


मृत्यु का यह द्वार देखे.....
तो भला अभिशाप क्या है ?


भावना के फूल अपनी
कामना लेकिन खिलेंगे ।
देवता के शीर्ष पर कुछ
धूल में जाकर मिलेंगे ।
डालियों पर फूल भी हैं ।
साथ लेकिन शूल भी हैं ।


कंटकों पर वह खिलें ते,
फिर बताओं श्राप क्या है ?


सात जन्मों से अधर की,
प्यास लेकर जो खड़े हैं ।
देखते निर्मोहियों के
हाथ अमृत के घड़े हैं ।
एक है अतृप्त मन से ।
एक है संतृप्त तन से ।


है यही जीवन भला तो,
वंचना का माप क्या है ?


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फूल पर अंगार देखा

रूप के लोभी नयन ने रूप का सिंगार देखा,
रंग के अभिलाषियों ने रंग का भंडार देखा ।
हम चमन के फूल से मिलते रहे बैरागियों से
और हमने आग देखी, फूल पर अंगार देखा।

हाँ कभी हम भी गये थे, पंख छूने तितलियों के,
मेघ सा मन कह रहा था साथ खेलें बिजलियों के ।
इस जतन में चार दिन की ज़िंदगी हमने गंवायी,
और दुनिया में लगा यह झूठ का बाज़ार देखा।

रात का अंतिम पहर था भोर तक हम भी जगे थे,
चाँदनी रस में घुली थी रूप के मेले सजे थे।
एक पल चेहरा दिखाकर छुप गया वह चादलों में,
आज बदला सा हुआ कुछ चाँद का व्यवहार देखा ।

हम समर्मण कर चुके थे भूलकर अस्तित्व सारा,
और जिसके सामने अपना सभी व्यक्तित्व हारा ।
गूढ़ अर्थो से भरी मुद्रा लिए वह देखती हैं,
आज हमने मूर्तियों का अजनबी व्यवहार देखा।

प्रेम के पथ पर दिखे उस हादसों से डर गए, हम,
क्या बताएँ किस तरह अवसाद ही से भर गए हम ।
राहगीरों का सभी कुछ लूटकर के जुल्म ढाती,
फूल-सी कोमल हथेली को लिए तलवार देखा ।


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जीवन तो चलता रहता है


जीवन चो चलता रहता है
चाहे कोई साथ निभाए
आए कोई या मत आए ।
दीप जलाकर बैठे कोई,
या फिर कोई त बुझाए ।
किसकी रहा निहारे सूरज,
जीवन तो चलता रहता है ।


आँख लगे तो नींद भी आए,
नींद लगी तो स्वप्न सताए ।
एक परी आए धीरे से,
हाथ पकड़ ले और उठाये ।
भोर हुए तक साथ हमारे,
दीपक भी जलता रहता है ।
जीवन तो चलता रहता है ।


एक पखेरू एक ठिकाना,
और वहीं तक आना-जाना ।
शीतल-शीतल छांव घनेरी,
सौंप दिया है आवो-दाना ।
भीतर जैसे पंख पसारे......
पंछी है पलता रहता है ।
जीवन तो चलता रहता है ।


धड़कन थोड़ी सांस जरा सी
थोड़ी खुशियाँ और उदासी,
अँखिया फिर भी प्यासी-प्यासी
वेदर्दी है समय निगोड़ा
यह सको छलते रहता है।
जीवन तो चलता रहता है ।


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तुम न होते

तुम न होते तो हम किधर जाते
खार बनते और बिखर जाते ।

ज़िंदगी बोझ बन गयी होती,
दम निकलता और मर जाते ।

पुरसुकूं यह नज़र नहीं होती,
अश्क आँखों में ही ठहर जाते ।

हर क़दम पर ठोकरें होतीं,
चोट लगती और सिहर जाते ।

हर क़दर पर ठोकरें होतीं,
चोट लगती और सिहर जाते ।

ख्वाव रहते नहीं निगाहों में,
फ़िक्र होता हम जिधर जाते ।

जिस्म बस जिस्म रह गया होता,
हम मोहब्बत नहीं अगर पाते ।


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मैं तपस्वी



मैं तपस्वी
स्वर्ण का उपहार,
लेकर क्या करूँगा
मैं तुम्हारे,
नेह का उपकार,
लेकर क्या करूँगा ?

था कभी निर्बोध सागर-सा
हृदय में जल प्रवाहित ।
लोल-लहरों के प्रकंपन,
से हुआ था मैं प्रबावित ।

रिक्त है सागर,
मरुस्थन शेष,
है अब रेत केवल ।
बादलों का व्यर्थ –सा,
मनुहार लेकर क्या करूँगा ?

आज पथ में जब चला हूँ,
साथ है निर्वाण मेरा ।
दूर पीछे कामनायें....
शेश है तो, प्राण मेरा ।

स्तवन करने चला हूँ,
मैं रुदन के देवता का,
मैं किसी के रूप का,
सिंगार लेकर क्या करूँगा ?

सत्य है कि साथ मुझको
भी हुई थी रंजना की ।
थाल कुंकुम का सजाया,
और जी भर वंदना की ।

प्राण का दीपक जला कर,
भाव-सुमनों से चढ़ाएँ ।
आज पिघले पत्थरों का,
प्यार लेकर क्या करूँगा ?

मन किसी निष्णांत की,
संकल्पना गढ़ने लगा है ।
तन उसी अज्ञात सीमा की,
तरफ बढ़ने लगा है।

मैं उऋण होकर चला हूँ,
मुक्त सारे बंधनों से ।
मौन हो या हो मुखर,
आभार लेकर क्या करूँगा ?


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हाल बुरे हैं



घायल होकर हम लौटे हैं,
घाव हरे हैं पाँव के ।
अलगू भैया कुछ मत मूछो,
हाल बुरे गाँव के ।

पगडंडी पर शूल बिछे हैं,
दिशा-दिशा है धुआँ-धुआँ ।
नदिया सूखी पनघट सूना,
पत्थर-पत्थर ,कुआँ-कुआँ ।,
बरगद-पीपल सूख चुके हैं,
पंछी है बिन छाँव के ।

सबकी छाती पर है जैसे,
जाने कितना बोझ धरा ।
सबकी अँखिया सूनी-सूनी,
मन में सबके जहर भरा ।
प्यार मोहब्बत भाईचारा,
अब हैं केवल नाम के ।

रामू-श्यामू का घर उनकी,
घरवानी जब से आई ।
बँटवारे को लेकर दिनभर,
लड़ते हैं दोनों भाई ।
हमने ऐसे दुर्दिन देखे ,
मधुबन जैसे ठांव के ।

अपराधी कर रहे सियासत,
बने हुए सबके आका ।
डारा हुआ है राम खिलावन,
डरे हुए जुम्मन काका ।
चौपालों पर खुली बिसाते,
शकुनी जैसे दांव के ।

बात-बात में लाठी-फरसे,
जात-पात पर खून बहे ।
नेम-धरम के बंधन टूटे,
मर्यादा की कौन कहे
खेवनहार वहीं दिखते हैं,
दुश्मन हैं जो नाव के ।

अलगू भैया कुछ मत पूछो,
हाल बुरे हैं गाँव के ।



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परिचय

दावानल के बीच नगरिया....
चलकर आता-जाता हूँ ।
पीड़ा की अनवरत कथाएँ....
गीत व्यथा के गाता हूँ ।


मेरा मत आवाहन करना,
तुम विचलित हो जाओगे ।
मैं सपनों की चिता सजाकर,
उसमें आग लगाता हूँ ।

मृत्यु और मरघट तो मेरे ,
प्रतिपल के सहभागी हैं ।
सहज हमें स्वीकार सभी कुछ,
कह सकते हो, त्यागी हैं....

जीवन के उल्लास मधुरमय
विलग हुए बरसों बीते,
विचरण करता हूँ निर्जन में,
कांटों पर सो जाता हूँ ।

दुख में सुख की परछाई के,
अनुभव ही दिन-रात किए ।
उर में गहरी उत्कंठा के,
जलते हैं अनवरत दिए ।

प्यास-तृप्ति का भुक्ति-मुक्ति का,
साधक भी, साधन भी हूँ
मृगतृष्णा के मकड़जाल की,
उलझन को सुलझाता हूँ ।

पाने-खोने की चिंताओं
की बातों को कौन कहे ?
पाया तो निःशब्द रहे,
कुछ खोया तो भी मौन रहे ।

इसी तरह जीवन की नैया,
वही जग की धारा में।
मिले नेह की धार जहाँ पर,
मैं उसका हो जाता हूँ ।

मेरी निजता की समरसता-
में खोया है जग सारा ।
मैं जीता तो दुनिया जीती,
मैं हारा तो जग हारा ।

कटुता और हलाहल के स्वर
अपने अधरों से पीकर,
मधुर गीत की रचना करके,
दुनिया को बहलाता हूँ ।



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अकेला हो गया मन

चमकती है कहीं बिजली,
गिरा है झूम कर सावन ।
अकेला हो गया मन ।

सुलगती आग में जैसे ,
झुलस कर रहा गया है तन ।
अकेला हो गया मन ।

चैन भीतर है न बाहर ही कहीं,
आस भी ओझल हुई दिखती नहीं,
फिर अँधेरा घिर गया होकर सघन।
अकेला हो गया मन।

स्वप्न सारे छल गए विश्वास में,
अब उदासी भर गई हर सांस में,
और भीतर हो रही तीखी जलन ।
अकेला हो गया मन।

दिन व्यथा की लेखनी लेकर चले,
दर्द के दो गीत दे संध्या ढ़ले,
रात आए और दे जाए कफ़न ।
अकेला हो गया मन ।

हर दिशा में राग-रंजित गान है,
व्यर्थ हैं, अपने लिए अन्जान हैं,
अब असुंदर हो गए सुंदर कथन ।
अकेला हो गया मन ।

प्रीत के आँगन दुआरे बंद हैं,
और नयनों में छलकते छंद हैं,
आँसूओं में घुल गए सुंदर कथन ।
अकेला हो गया मन ।

भीड़, मेला, पर्व या त्यौहार में,
तन भटकता रह गया संसार में,
इक मिलन की आस की लेकर लगन ।
अकेला हो गया मन ।



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पैग़ाम लिखा

सावन के बादल ने जब भी धरती को पैग़ाम लिखा,
मेरे हक में काली रातें, सूरज तेरे नाम लिखा।

तेज़ हवाएँ, भीगा पर्वत, दरिया-बहते–झरनों पर,
उजली-उजली सुबह लिखी है, तन्हा–तन्हा शाम लिखा ।

गुलशन-गुलचे, टहनी-टहनी, नाज़ुक –नाज़ुक फूल खिले,
भीगे पत्तों पर मौसम ने, तुझको एक सलाम लिखा।

चंचल-शोख हवाएँ दिन भर नग़मों को दुहराती हैं,
बारिश की बूँदों ने, तुझ पर सौ-सौ बार कलाम लिखा ।

शम्मा के रौशन चेहरे पर सच्ची-सच्ची बात लिखी,
उल्फ़त का मज़मून लिखा है, चाहत का अंजाम लिखा।



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स्वारथ

स्वारथ

स्वारथ के सब रिश्ते-नाते,
स्वारथ का सब खेल है बाबा,
जलती है दियने की बाती
जब तक उसमें तेल है बाबा ।

चीटों जैसे लोग जुटेंगे,
तेरे आँगन ड्योढी पर,
हाथों में तेरे माया है,
तब तक रेलमपेल है बाबा ।

उम्र क़ैद की सज़ा मिली है,
बिना किन्हीं अपराधों के
मरने पर ही मुक्त करेगी,
दुनिया ऐसी जेल है बाबा ।

चिंता का पथ चले चिता तक,
और धुआँ है दिशा-दिशा,
एक तृषा का अग्नि-कुण्ड से,
कैसा अद्भुत मेल है बाबा ।

तुझसे जन्मा, तेरा खाया ,
तुझको ही अवधार्य किया,
वह करता है सदा अमंगल,
करनी यह बेमेल है बाबा ।



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बादलों ने

देर तक मल्हार गाया बादलों ने,
रात भर हमको सताया बादलों ने ।

हसरतें नाकाम होकर सो गई थीं,
आज उनको फिर जगाया बादलों ने ।

दिल-ज़िगर रूहो-नज़र सब तर–बतर हैं,
आज ऐसा ज़ुल्म ढाया बादलों ने।

अब किसे देखें अँधेरा दर-बदर है,
चाँद का चेहरा छुपाया बादलों ने ।

रेत बनकर तिश्नगी ठहरी हुई है,
ख़्वाब का दरिया बहाया बादलों ने।

सब्ज़ यादों की तरह खामोश रहकर,
शाम ढलते सर उठाया बादलों ने।



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घरौंदे की तरह

घरौंदे की तरह

तन-बदन है, शाख पर हिलते घरौंदे की तरह,
मन! वही बेसाख्ता, उड़ते परिंदे की तरह ।

बेतहाशा बोलती है, आज दिल में बुलबुलें,
चाहतों ने जाल फेंका, एक फंदे की तरह ।

देखता हूँ शोख परियों की नुमाइश दर-बदर,
सब्र अपने साथ है, पर नेक बंदे की तरह ।

दाम असली, काम नकली, फिर मुनाफ़े की फ़िकर,
प्यार भी अब हो गया है, एक धंधे की तरह

जानता हूँ मंज़िले-मकसूद-ऐ उल्फ़त मगर,
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ एक अंधे की तरह ।



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बीती बात

मुझसे बीती बात न पूछो !
महाप्रलय में तटबंधों से
लहरों के आघात न पूछो !

मैं तो मौन खड़ा था पथ में, निर्भय हो सदियों से,
मनोयोग से मन का रिश्ता जोड़ा था नदियों से ।
धीरे-धीरे मेरा ढहना, ऊपर से बरसात न पूछो ।


मेरी सीमाओं के भीतर वह कल तक बहती थी,
अंतर्मन की सारी बातें, निश्छल ही कहती थी।
अब वह बंधन तोड़ रही है, उनका यह दुर्घात न पूछो ।

आदि-अंत का साथ सनातन छोड़ रही है ऐसे,
प्राण अकेला छोड़ रहा हो ,बूढ़े तन को जैसे ।
लहर-लहर बहकर करती है, मुझ पर जो प्रतिघात न पूछो ।

मुझसे बीती बात न पूछो !
महाप्रलय में तटबंधों से
लहरों के आधात न पूछो ।



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मंज़र देख ज़रा

मंज़र देख ज़रा

मुझमें क्या है, मेरे अंदर देख ज़रा ।
प्यासा –प्यासा एक समंदर देख ज़रा ।

कल जो सीना –बाहें ताने फिरता था,
हार गया वह एक सिकंदर देख ज़रा ।

प्यार-मुहब्बत के जो नग़में गाता था,
रोता है वह मस्त कलंदर देख ज़रा ।

तेरा शायर फूलों से भी नाज़ुक था ,
उसके सीने में है ख़ंजर देख ज़रा ।

जिस माली ने तेरा गुलशन सींचा है,
उसकी बर्बादी का मंज़र देख ज़रा ।



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आग लगाता है

आग लगाता है, तो कोई काँटे बोता है,
छोटे-से इस दिल के अंदर क्या-क्या होता है ।

बारिश होती है, तो बाहर दुनिया हँसती है,
दिल बेतरहा रोए, जैसे बच्चा रोता है ।

शाम हुई खुलती है आँखें, तन्हा रातों में,
खुद से ही बातें करता है, दिन भर सोता है ।

नाज़ उठाने की ज़हमत से जो नावाक़िफ़ था,
दिल है वह ही लेकिन, अब वह पत्थर ढोता है ।

गुज़रे लम्मों के अफ़साने, बीते पल की बातें,
कहते-सुनते अपना दामन आप भिगोता है ।



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पंखों का विस्तार



पिंजरा बोला-रे सुआ !
मैं तेरा संसार।
अपने पंख सिकोड ले,
चाहे पंख पसार.....
पिंजरे से सुगना कहे.....
खोले कोई द्वार।
उस दिन तू भी देखना,
पंखों का विस्तार।

एक दिन पूछी मीन ने ,
नदिया से यह बात है,
तू भीतर तो शांत है,
उपर क्यों है क्लांत
नदिया बोली मीन से,
रे मेरी जलजात......
निकलेगी जब नीर से,
तो समझेगी बात....

प्राण कहे सुन आत्मा
दोनों में क्या मेल
मैं माया, मोक्ष है,
जोड़ी यह बेमेल ।
मन से बोली आत्मा,
यह विधना का खेल।
तन दियने की जोत है,
तुम बाती, हम तेल ।

श्वेत वर्ण चंपा खिली,
मधुकर पहुँचा पास ।
अंतर-रस खाली मिला,
भँवरा हुआ उदास।
चंपा बोली रे अली,
झूठी तेरी प्यास....
फूल-फूल पर डोलता,
तेरा क्या विश्वास ।

कविता बोली –ऐ कवि
तू कोमल सुकुमार ।
कैसे करता है मुझे,
शब्दों में साकार
कवि ने कविता से कहा,
सुन मेरी सुखसार ।
हम सबको स्वीकारते,
खुख-दुख करुणा-प्यार ।


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बेवफ़ा समंदर है

बेवफा समंदर है,
अजनबी किनारा है।
नाखुदा ने कश्ती को,
फिर वहीं उतारा है।

तल्ख तनहाई में,
दिल को बहलाते हैं ।
हमको तेरी यादों का,
किस क़दर सहारा है ।

फूल-से महकते हैं,
गीत औ ग़ज़ल अपने,
हमने कुछ तजुर्बों को,
इस तरह संवारा है ।

क्या बताएँ हम तुमको,
किस तरह से जीते हैं।
मौत ने मिटाया नहीं,
जिंदगी ने मारा है।

डूबता है सूरज तो,
आसमां सिसकता है,
फिर भी लोग करते हैं,
क्या हसीं नजारा है ।

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रस्ता कट जाएगा

थोड़ा तुम मेरी सुन लेना,
थोड़ा अपनी कह लेना ।
कहते-सुनते ही जीवन का,
यह रास्ता कट जाएगा ।

बादल-जैसी पीर घनेरी,
आज उठी है भीतर में ।
इसको थोड़ी और हवा दो,
यह बादल छट जाएगा ।

घट जाता है दुख, बँटने से...
दुनिया ऐसा कहती है ।
पथ पर मेरे साथ चलो तो,
निश्चित यह घट जाएगा ।

दिन भर तपता है यह सूरज,
फिर भी तम का राज यहाँ ।
तुम आओ जो साथ हमारे,
अँधियारा फट जाएगा ।

जीवन का यह भर अकेले ,
ढो पाना भी मुश्किल है ।
थ़ोड़ा हाथ लगाने से यह,
मुमकिन है बँट जाएगा ।



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मूर्तियाँ

कुछ हमारी अर्चना को मान कर सम्मान देंगी,
यह समझ कर पत्थरों की मूर्तियाँ हमने गढ़ी थीं ।


कल्पना की छेनियों पर,
भावना सौ बार टाँके ।
स्वप्न देखे जा रहा था,
मैं नयी संभावना के ।


आज हम पर हँस रही थीं, मूर्तियाँ नवरूप लेकर,
और उनमें कुछ हमारी अस्मिता भी तो जड़ी थी।


दूब-अक्षत भी चढ़ाया,
अनवरत उनके चरण में ।
एक परिवर्तन न देखा,
किंतु उनके आचरण में ।


रेत पर निर्मित घरौदे का लहर से सामना था,
मह निरंतर ढह रहे थे, और वह निष्ठुर खड़ी थी।


सात जन्मों की निरर्थक,
शून्य होती वंदना है ।
पत्थरों में प्राण पहुँचे,
यह हमारी कल्पना है ।


आज मन के द्वंद्व सारे, कह रहे निर्द्वंद्व होकर,
सत्य वह साकार था, पर भावना उससे बड़ी थी ।


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कैसे गाऊँ

कैसे गाऊँ गान सखी री
बोल सजे हैं, परदेशी हैं –
पर गीतों के प्राण सखी री ।

बिंदिया, कंगन, रोली, चंदन,
मंजुल सुमन, मधुर है वंदन ।
मन की श्रद्धा अक्षत लेकर,
आकुल है करने अभिनंदन ।
नयनों की आभा मद्धिम पर,
दीपक है द्युतिमान सखी री ।

जिन अधरों ने प्यास जताया,
उन अधरों ने चुंबन पाया ।
कहीं देखती हूँ लतिका ने ,
रूखे तरुबर को लिपटाया ।
मिलता काश! हमें भी ऐसा,
कोई तो सम्मान सखी री !

चंदा-सूरज नीलगगन में,
खोए रहते नेह-लगन में ।
धरती पग-पग चलती रहती,
निशा-दिवस के एक जतन में ।
हम ही पत्थर की मूरत हैं
बाकी सब गतिमान सखी री ।

बिरथा ही कट रही उमरिया,
पाहन से बिछ डगरिया ।
संचय की थी साध, मगर अब,
दरक उठी, रिस गई गगरिया ।
मरुस्थल हूँ अब भूल गई मैं ,
पावस का अबदान सखी री !

कैसे गाऊँ गान सखी री ?
बोल सजे हैं, परदेशी हैं-
पर गीतों के प्राण सखी री!



अपना ही संसार



प्रियतम !
मैं तो डूब गया था,
सचमुच ही मनुहार में ।
जिस दिन तुम खोई-खोई थीं,
अपने ही संसार में ।

मैं क्या जानूँ सीमाओं की बात,
तुम्हारी तुम जानो ।
मैं तो निश्छल प्रेम-पथिक हूँ,
मानो या फिर मत मानो ।
ऊँच-नीच की बात भला,
फिर आई क्यों उपहार में ।

अधरों पर खिलते सुमनों के
स्पंदन की चाह लिए ।
प्यासा ही मर गया बटोही,
प्यासी-प्यासी आह लिए ।
तुमने तो बस आग लगायी,
सपनों के संसार में ।

कैसा आज सुरभि का संचय,
हार-सिंगार भला किसको ?
जो कुछ देखा नहीं आज तक,
यौवन-भार भला उसको ?
तुने डाल दिया है हमको,
जीवन के मझधार में ।

इतना तो निश्चित है कि मैं,
चाहे अर्ध्य नहीं दूँगा,
लेकिन भाव –विमुख कोई भी,
श्रद्धा के व्यापार में ।

प्रियतम
मैं तो डूब गया था,
सचमुच ही मनुहार में।
सचमुच ही मनुहार में ।
जिस दिन तुम खोई-खोई थीं,
अपने ही संसार में ।



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Tuesday, August 08, 2006

फागुन आया री


डाल-डाल खाए हिचकोले
फागुन आया री ।
मधुर-मधुर कोयलिया बोले,
फागुन आया री ।

सरसों पहने पीत चुनरिया,
झूमे गेहूँ-बाली ।
अगरु-गंध सनायी धरती,
महके महुआ डाली ।
कलियों-कलियों ने मुँह खोले,
फागुन आया री।
मंजरियों पर भंवरे डोलें
फागुन आया री ।

पात-पात झर गए ढाक के,
वन-पलाश भी दहके ।
मदन चलाए बाण काम के,
तन-मन बेसुध बहके।
पुरवा गाए हौले-हौले,
फागुन आया री ।
अधर सँजोए शब्द अबोले,
फागुन आया री ।

अमरैया के शिखर-शिखर पर,
प्रणय-गान के गुंजन।
बिखर गयी है पंगडंडी में,
अक्षत, रोली, चंदन।
मन का सगुना अनहद बोले,
फागुन आया री।
भीतर के गठबंधन खोले
फागु आया री ।

डाल-डाल खाए हिचकोले,
फागुन आया री ।
मधुर-मधुर कोयलिया बोले,
फागुन आया री ।


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हम बैठे खामोश



हम बैठे खामोश,
घुटन में बीत रही यह रात!

दूर कहीं आवाज़ लगाएँ,
चकवा-चकवी साथ।
लेकिन भीतर खाँस रहा है,
बूढों-सा जज़्बात!
पेशानी पर कौन फिराये,
कोमल-कोमल हाथ ?

मन बेसुध, तन साथ हवा के-
पत्ते-जैसा डोले।
भीतर से आवाज उभरती,
शायद कोई बोले!

अपने आप किया करते हैं,
कैसी-कैसी बात ।

उपर-उपर चाँद-सितारे,
अपनी ही मस्ती में....
पर हम तेज़ लहर में बैठे,
हैं ग़म की कश्ती में ।
ऐसे में तेवर दिखलाए,
दुश्मन कायनात ।

बहा-बहा ले गई आँधियाँ,
तिनके-जैसे मन को ।
छोड़ गई हैं निपट अकेला,
तरुवर-जैसे तन को ।
खड़ी फ़सल पर आज उमड़ती,
ओलों की बरसात ।


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अब क्या होना पाठक जी


कच्ची मिट्टी का होता है,
प्रेम-खिलौना पाठक जी !
तुमको समझाया था पहले,
अब क्या रोना पाठक जी ?

तुम कोमल-सुकुमार कवि थे,
क्या तुमसे वह संभव था ?
चट्टानों को तोड़-तोड़कर,
पत्थर ढोना पाठक जी ।

सच्चे हो इंसान, मगर हो
दुनियादारी में कच्चे ।
पीतल भी तुमको लगता है,
सच्चा सोना पाठक जी ।

दीपक से मनुहार किया, तो
पंख जलाकर आओगे
मरघट तक यह ले जाता है,
रूप सलोना पाठक जी।

बहुत कठिन है नेह-डगरिया,
कैसे तुम कर पाओगे ?
अपने हाथों अपने पथ पर,
काँटे बोना पाठक जी ।

धन को फूँका, धर्म गँवाया,
ठगिनी माया के पीछे ।
जो कुछ था सब गया तुम्हारा,
अब क्या होना पाठक जी ।

ज्ञानी जन की बात न समझे,
कूद पड़े अंगारों पर ।
प्रेम लपट है जिसके भीतर,
आग बिछौना पाठक जी ।


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वह मेरा भगवान नहीं था


अवचेतन के भीतर संशय में-
उतरा अनुमान सही था,
वह मेरा भगवान नहीं था ।

वंचित रहकर भी श्रद्धा में,
उस पर ही सर्वस्व लुटाया
अपनेपन का स्वांग रचाकर,
उसने प्राणों को भरमाया ।
अब क्या लेखा-जोखा उसका
अब निधियाँ कितनी बच पाईं
नेहों पर न्योछावर कर दी,
हमने अपनी सकल कमाई ।
दुख है तो इतना ही केवल,
वह इससे अनजान नहीं था ।
वह मेरा भगवान नहीं था।

पत्थर तो पत्थर है आखिर,
मंदिर का हो या हो घर का।
थोड़ा-सा अंतर होता है,
दृष्टिकोण का और नज़र का ।
मेरे भीतर निर्मल-निश्छल,
धाराएँ –सी बहती रहतीं।
इसीलिए जीवन भर पूजा,
दुनिया जिसको पत्थर कहती।
मेरे पूर्ण समर्पण पर भी,
दो पल का अवदान नहीं था।
वग मेरा भगवान नहीं था ।

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ज़िंदगी


मंद-मंद फागुनी हवा,
गीत एक गुनगुना गई,
तुम न आए किंतु लौटकर,
फिर तुम्हारी याद आ गई।

भावना की तेज़ आंधियाँ,
बह रही है, साँस-साँस में,
पात-पात, फूल झर गए,
आंधियाँ उन्हें बहा गई ।

मौन है ज़मीनो-आसमां,
बेखबर दिशाएँ मौन हैं,
चाँद आज ढा रहा सितम,
चाँदनी सता-सता गई।

झर गए हैं फूल-फूल के,
कुछ पराग ओस में सने,
झर में उतर के सुंदरी ,
चाँदनी नहा-नहा गई ।

जाग रहे हैं, बावरे नयन,
स्वप्न कहीं दूर-दूर है,
पुतलियों के पोर-पोर में,
वेदना समा-समा गई ।

ख्वाहिशों की नींव पर कई,
रेत के बने हुए महल,
फिर उन्हें प्रचंड वेग की,
हर लहर ढहा-ढहा गई ।

भोर की उतर गई किरण,
फूल-फूल मुस्कुरा दिए,
बूँद ओस की ठहर-ठहर,
नेह का पता बता गई।

आज लग रहा यह तन यह मन
भीड़ में घिरे अबोध-सा !
सिसकियाँ न बंद हो सकीं,
कोशिशें रुला-रुला गई।

तेज़ धूप, रेत का सफर-
तिश्नगी मिली है दर-बदर,
एक बूँद की तलाश में,
जिंदगी कहाँ-कहाँ गई ।

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गाँव


सबको देता ही,
रोटी, पानी, छाँव ।
आज वही याचक बना,
फटेहाल है गाँव ।

बरगद, पीपल काटकर,
गाड़ दिए कुछ पोल ।
बिजली आकर आ गई,
चिड़िया का किल्लोल ।

गाँधी के आदर्श का,
ऐसा हुआ हिसाब ।
गाँव, गली-चौपाल में,
बिकने लगी शराब ।

संक्रामक होने लगा,
लोकतंत्र का रोग ।
जनता का धन खा गए,
जनता के ही लोग ।

मर्यादा मरने लगी,
निर्लज है परिहास ।
बूढ़े-बच्चे बैठकर,
दिन भर खेलें ताश ।

अब तो अपनी धारणा,
बदले भी श्रीमान ।
ना तो अब वह गाँव हैं
ना ही सरल किसान ।



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तब की बातें


तब की बातें छोड़ो पाठक जी !
अब नेहों का मनुहार बिका करता है ।
खन-खन करते चांदी के टुकड़ों पर,
अब गोरी का सिंगार बिका करता है ।

हाँ ! गाँव –गाँव में राधा रानी है,
और गली-गली में कृष्ण कन्हाई भी ।
लेकिन पनघट पर रार नहीं होता,
अब कुंज, गली में प्यार बिका करता है ।

यह दुनिया एक बाज़ार-सरीखा है,
हर कोई अपना मोल किए बैठा है ।
अपने घर के ही दुश्मन के हाथों,
विश्वसनीय पहरेदार बिका करता है ।

सड़कों पर जैसे इंद्रधनुष चलता,
सतरंगे परिधानों के बादल-सा ।
वैभव के फूहड़ ताने-बाने में,
लिपटा सारा अभिसार बिका करता है ।

हाँ ! देवालय में देव विराजे हैं,
और भक्तों की भरमार दिखा करती है ।
लेकिन श्रद्धा से मुक्त पुजारी हैं,
अब तो सेवा-सत्कार बिका करता है ।



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वीर लोग



प्रत्यंचा पर ज्यों तीर लोग,
अब कहाँ गए वीर लोग?

रग-रग में जिनकी
लोहू में नैतिकता का बल
आँखों में जिनकी निष्ठा का
आलोड़ित होता वेग प्रबल ।
वे गज के जैसे शांतचित्त,
वे धीर-वीर-गंभीर लोग,
अब कहाँ गए वे वीर लोग ?

चरणों की आहट से जिनके,
दुश्मन का मन थर्राता था ।
जिनके पौरुष के दर्शन से,
वह कांप-कांप रह जाता था ।
वे केहरि-से निर्भर सदा,
रण को उन्मत रणवीर लोग,
अब कहाँ गए वे वीर लोग ?

जो कुंज-लता में तरुवर-से,
लहराते अपनी बस्ती में ।
वैभव के अवसर त्याग सदा,
रह जाते अपनी मस्ती में ।
वे धर्म-नीति और मूल्यों की,
छत को थामें शहतीर लोग,
अब कहाँ गए वे वीर लोग ।

प्रत्यंचा पर ज्यों तीर लोग,
अब कहाँ गए वे वीर लोग ?

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सूरज है ढलने को



सूरज है ढलने को संध्या की बेला है,
भीगी-सी पलकों पर यादों का मेला है।

हौले से चलकर के पुरवाई बहती है,
कानों में धीरे से जाने क्या कहती है,
मन के तटबंधों पर सागर का रेला है ।

पेड़ों की टहनी पर कलरव की तानें हैं,
ऐसे में हम खुद से बेसुध अन्जाने हैं ।
विधना की बातें हैं, क़िस्मत का खेला है ।

तारों के झुरमुट में चंदा की डोली है,
मिश्री–सी रसभीनी चकवे की बोली है ।
प्राणों का पंछी ही बिलकुल अकेला है ।

सूरज है ढलने को संध्या की बेला है,
भीगी-सी पलकों पर यादों का मेला है ।


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भारती के नव-पुरोधा नंदनों की
अब सियासत चल पड़ी गठबंधनों की ।

नागफनियों के नए जंगल उगे हैं,
दुर्दशा होने लगी चंदन-वनों की ।

पेट की चिंता यथावत आज भी है,
फ़िक्र अब होने लगी है गर्दनों की ।

बिजलियों की कौंध पर तो बेखबर है,
कौन सुनता है यहाँ बेकल मनों की ?

है बड़ा फ़नकार तो फिर भूख से मर,
क़द्र की मत आस कर अपने फ़नों की ।

इस तरह रिश्ता निभाया दोस्तों ने,
दुश्मनी बेहतर लगी है दुश्मनों की ।

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ज्ञान का पहिया




ज्ञान का पहिया हुआ गतिमान यारो ।
आदमी अब हो गया भगवान यारो ।

साधुओं का भेष धर के आदमी ही,
आदमी को दे रहा व्याख्यान यारो ।

छल-कपट और पाप का व्यापार करके,
आदमी होने लगा धनवान यारो ।

दूरियाँ कमतर हुईं पर आज भी है,
आदमी से आदमी अनजान यारो ।

लोक-लज्जा त्याग देना, आदमी की,
सभ्यता का बन गया प्रतिमान यारो ।

आदमी अवसाद का पर्याय केवल,
खो गई उसकी सहज मुस्कान यारो ।

देवता भी क़ैद में हैं, आदमी से-
माँगता है मुक्ति का बरदान यारो ।

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बिखरे हुए घर-बार

टूट कर बिखरे हुए
घर-बार हैं अब,
अब कहाँ की बस्तियाँ
बाज़ार है अब ।

प्रेम की वह बाँसुरी,
बजती नहीं है ।
अब कहीं भी राधिका,
सजती नहीं है ।
अब नहीं अभिसार की
बातें यहाँ पर,
हर तरफ चलता हुआ
व्यापार है अब ।

आदमी जैसे खिलौना
हो गया है ।
घट गया है और बौना
हो गया है ।
ज़िंदगी चलती मशीनों
की तरह है,
आदमी टूटा हुआ
औज़ार है अब ।

सरहदों में बाँट कर
इंसनियत को,
दे रहे तरजीह बस
हैवानियत को ।
प्यार से मिलते गले थे
कल तलक बह,
जंगजू हैं, हाथ में
हथियार हैं अब ।

कुर्सियों तक जा रही
पगडंडिया हैं,
लाल-पीली और
नीली झंडियाँ हैं ।
है सियासत का सफ़र
महफूज सबसे,
क़ौम का ही रास्ता
दुश्वार है अब ।

टूट कर बिखरे हुए
घर-बार हैं अब,
अब कहाँ की बस्तियाँ
बाज़ार हैं अब ।

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अपनी बात

भावनाएँ जब रागमय हो जाती हैं, तब गीत का जन्म होता है । मनुष्य के भीतर अंतर्रात्मा नाम का एक अमूर्त तत्व होता है, ऐसी सब की मान्यता है । मेरा ऐसा मानना है कि अंतर्रात्मा नाम की यह बस्तु ही मनोभावों की जनक है, जो उसका पोषण भी करती है। अब चाहे यह संयोग के भाव हों, वियोग के अथवा हर्ष और अवसाद के, यह सारे भाव उपजते अंतर्रात्मा की उर्वर भूमि से ही हैं। मनुष्य वस्तुतःअपनी इसी अंतर्रात्मा का प्रतिनिधि है ।

गीतों के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि अनुभूतियों में उपजते भाव और राग का सम्मिश्रण ही गीत है, जिसकी अनुभूति रचनाकार, पाठक या श्रोता सभी को समान रूप से आंदोलित करती है ।

‘यादों के सावन’, ‘महुए की डाली पर उतरा बसंत’, ‘जीवन एक धुएं का बादल’ के प्रति आप सबके स्नेह ने मेरे सृजन को संबल दिया है, इसके लिए मैं आप सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहूँगा ।

‘गीता गाना चाहता हूँ’ में गीत भी हैं ग़ज़ल भी, साथ ही जीवन की विसंगतियों के साक्षात्कार से उपजी भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति भी है । कुल मिलाकर इसमें वही सब कुछ है जिसे हम रोज जीते हैं और अनुभव करते हैं ।

यह संग्रह जिस रूप में आपके हाथों में है वह समेकित प्रयासों का फल है। पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में श्री दिवाकर राव ने बहुत सहयोग किया है, वहीं रचनाओं के परिमार्जन में मेरे साहित्यिक मित्रों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, मैं उन सबको धन्यवाद देना चाहूँगा । उन तमाम मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों का भी स्मरण करना चाहूँगा जिन्होंने इस संग्रह के प्रकाशन में अपनी जिज्ञासाजनित रूचि दिखलाई ।

जीव संगिनी रीता के अमूल्य सहयोग के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी बात यहीं समाप्त करना चाहूँगा ।

अक्षय तृतीया
11मई, 2005
अजय पाठक

क्यों गीत गाना चाहते हैं अजय पाठक ?

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास की सद्यः परिणति आधुनिक युग की भौतिक संपन्नता के रूप में रेखांकित की जाती है, जिस में बच्चा होश सँभालने के पहले ही माता-पिता की महत्वाकांक्षा का बोझ ढोने के लिए विवश हो जाता है और माता –पिता भी यह देखकर-सोचकर संतोष की साँस लेते हैं कि उनका बच्चा युगानुरूप ढलने के काबिल हो रहा है । बालसुलभ सहजता, सरलता, तरलता, चपलता अब कहानियों और बालगीतों की विषयवस्तु रह गई है । ‘जैसा बीज, वैसा वृक्ष और जैसा वृक्ष, वैसा बीज’ वाली कहावत आज ही नहीं, कभी चरितार्थ हुई ही नहीं, क्योंकि आप दशहरी आम की गुली अपने बगीचे में डाल दीजिए, पेड़ तो आम का होगा, पर फल दशहरी नहीं, वैसे ही जैसे मनुष्य का बच्चा मनुष्य हो, ज़रूरी नहीं है । आज प्रत्येक घर –परिवार, बस्ती ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति खंडित आस्थाओं को ढोने वाला एक यंत्र-मात्र रह गया है (जिंदगी चलती मशीनों की तरह है / आदमी टूटा हुआ औजार है अब,पृष्ठ-14), ऐसी ही परिस्थिति में गीत गाने की चाहत रखनेवाले अजय पाठक के गीतों को जाँचने-परखने के पहले उन्हें आत्मसात करना पहली शर्त है ।

यह सही है कि सब एक ही राह पर नहीं चल सकते, पर क्या यह भी सही नहीं है कि मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए संवेदना के आलावा और कोई रामबाण नहीं है ? और संवेदना है माँ की फटकार में, लोक की टेढ़ी नज़र में, जिससे व्यक्ति उचित –अनुचित सोचने करने के दोराहे पर मार्गदर्शन लेता है और दूसरी ओर उदास-हताश मनःस्थिति में माँ के हाथों का स्नेहिल स्पर्श, पिता के सांत्वना के दो बोल, गुरु का उपदेश, पत्नी का प्यार, यार-दोस्तों की सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार-सब के सब
मानो लंबी काली रात के बाद नए बिहान लगते हैं ।

कविता संवेदना की पुत्री ही नहीं, धात्री भी है, बेटी की परिणति क्रमशः बहन, पत्नी माँ, के रूप में होती है । गीत कविता का सर्वाधिक सशक्त किंतु कोमल रूप है, जिस में छंद उस की धड़कन है। ‘छंद’ तथाकथित बंधन या अनुशासन नहीं, वह सुसंगति, ताल, लय, संतुलन, और अनुपात का आधायक है, जिन में विराम में भी गति है, गति में स्पृहणीय विराम है, जिस से मर्यादा –भंग न होने पाए (“निर्धन होतीं मर्यादाएँ /कैसे हो निर्वाह कबीरा”-13)

साहित्य या किसी भी कला-प्रकार का परम उद्देश्य है –एक बेहतर दुनिया में एक बेहतर आदमी की रचना । बेहतर आदमी बने न बने, आदमी को आदमी बनाए रखना प्रत्येक युग की सब से बड़ी ज़रूरत है । गीत इस दिशा में अच्छी पहल है, जो मनुष्य युग की सब से बड़ी ज़रूरत है । गीत इस दिशा में अच्छी पहल है, जो मनुष्य की संवेदना को जगाए रखता है, क्योंकि बिना संवेदना के गीत-रचना संभव नहीं है । आज की दुनिया मनुष्य की मुट्ठी में है –संचार-सुविधाएँ इतनी अधिक हैं कि घर बैठे सारी दुनिया से बातचीत हो जाए अथवा कुछ ही घंटों में एक देश से दूसरे देश में पहुँच जाएँ, परंतु यह कैसी विडंबना है कि भौतिक निकटता आत्मिक दूरी को जन्म दे रही है (-“दूरियाँ कमतर हुईं, पर आज भी है / आदमी से आदमी अनजान यारो” – पृष्ठ 16)।

मानवीय संबंधों का सार है-प्रेम । प्रेम के बिना सारे रिश्ते-नाते यारी-दोस्ती दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं । प्रेम का अभाव ही विद्वेष या घृणा या नफ़रत में तब्दील हो जाता है और मनुष्य हिंस्र पशु से भी भयावह हो जाता है । घनानंद ने प्रेम का मार्ग अत्यंत सीधा बताया है, जहाँ थोड़ी भी चतुराई की गुंज़ाइश नहीं है, क्योंकि छद्माचरण प्रेम के लिए अभिशाप है (--“इस तरह रिश्ता निश्ता निश्ता निभाया दोस्तों ने / दुश्मनी बहतर लगी है दुश्मनों की-पृष्ठ 17)।

प्रेम-प्यार अनमोल धन ही नहीं, जीवन-रस है, जिस के बिना मनुष्य का, कीरी-कुंजर और वनस्पति-जगत भी निर्जीव प्रतीत होता है । जिस घर में हम रहते हैं, उसे दो-चार दिन बंद कर के देखिए, भूत-बँगला लगता है । लेखक की चिंता स्वाभाविक है कि अब प्रेम भी बिकने लगा (-“तब की बातें छोड़ो पाठक जी / अब नेहों का मनुहार बिका करता है” –पृ.21)। प्रेम का उदात्त रूप ही श्रद्धा और श्रद्धा का उदात्त रूप भक्ति है । मंदिर – देवालयों की संख्या पहले से अधिक हो गई रहै, परंतु वहाँ श्रद्धा गायब है (--“हाँ देवालय में देव विराजे हैं / भक्तों की भरमार दिखा करती है / लेकिन श्रद्धा से मुक्त पुजारी हैं /अब तो सेवा सत्कार बिका करता है” – पृष्ठ21)।

प्रकृति सदैव मानव की धात्री रही है । उस के कण-कण में प्रेम का संदेश है । एक ओर मरुस्थल का विस्तृत वक्ष सहिष्णुता-द्ढ़ता का पाठ प़ढ़ाता है, तो दूसरी ओर गुलाब के फूल काँटों से घिरकर भी मुस्कराने का दृष्टांत प्रस्तुत कर रहे हैं (-“भोर की उतर गई किरण / फूल –फूल मुस्करा दिए / बूँद ओस की ठहर –ठहर / नेह का पता बता गई” – पृष्ठ24)। कवि प्रेम के करलव से साक्षात्कार करता-कराता चलता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, वह धन-दौलत के बाहरी चकाचौंध में नहीं, वह अंदर, जहाँ पहुँचना सब के वश की बात नहीं है। कबीर-जैसे रागी जन बहुत पहले ही कह गए हैं, परंतु उन की रागीयता का मर्म समझे बिना जो, तथाकथित मायावी प्रेम की आग में कूद जाते हैं, वे नादान हैं (-“अपने मन की बात न समझ, कूद पड़े अंगारों पर / प्रेम लपट है जिसके भीतर आग बिछौना पाठक जी” – पृष्ठ27) ।

वैसे प्रकृति का साक्षात्कार करने से पहले प्रकृति को आत्मसात करना होता है, अन्यथा प्रकृति प्रकृति नहीं, विकृति दीखती है । यह कवि का उन्मुक्त हृदय और उस की उन्मुक्त दृष्टि ही है, जिस से उसे प्रकृति का सौंदर्य यथातथ्य संवेदित होता है (-“पात-पात झर गए ढाक के / वन-पलाश भी दहके। मदन चलाए बाण काम के / तन-मन बेसुध बहके । पुरवा गाए हौले-हौले / फागुन आया री । अधर सँधर सँजोए शब्द अबोले / फागुन आया री ।” –पृष्ठ30)।

यह प्रकृति –राग मानव-मन में मात्र अनुराग जगा कर समाप्त नहीं हो जाता, वरन् कवि को ‘विराग’ से भी परिचित कराता चलता है, जिस से वह चिंतनशील होकर कहता है (-“श्वेतवर्ण चंपा खिली मधुकर पहुँचा पास । अंतर-रस खाली मिला भँवरा हुआ उदास । चंपा बोली रे अलि, झूठी तेरी प्यास....फूल-फूल पर डोलता, तेरा क्या विश्वास ।” –पृ.40) । ‘विराग’ वास्तव में केवल ‘विगतराग’ नहीं, विशिष्ट राग भी है, क्योंकि अन्यथा व्यक्ति क्यों उस ‘अलभ्य’ से जुड़ाव का बयान करता (-“था कभी निर्बाध सागर-सा ह्दय में जल प्रवाहित । लोल लहरों के प्रकंपन से हुआ था मैं प्रभावित । रिक्त है सागर, मरुस्थल शबकेवल । बादलों का व्यर्थ-सा मनुहार लेर क्या करूँगा। पृष्ठ-54)।

डाँ. चित्त रंजन कर
अध्यक्ष,
साहित्य एवं भाषा- अध्ययनशाला,
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,
रायपुर (छ,ग.)

कबीरा


सबकी अपनी चाह कबीरा,
अपनी-अपनी राह कबीरा ।

ढाइ आखर की बातों की,
किसको है परवाह कबीरा ?

सबकी आँखें भीगी-भीगी,
अधरों पर है आह कबीरा ।

पीर बहुत है भीतर गहरी,
कैसे पाएं थाह कबीरा ।

कुएँ पर गाडर का रेला,
कौन करे आगाह कबीरा ।

भीतर गहरी ख़ामोशी है,
जैसे हो दरगाह कबीरा ।

सबके चेहरों पर आ बैठा,
थका हुआ उत्साह कबीरा ।

निर्धन होती मर्यादाएँ ,
कैसे हो निर्वाह कबीरा ।

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