Tuesday, August 08, 2006

क्यों गीत गाना चाहते हैं अजय पाठक ?

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उत्तरोत्तर विकास की सद्यः परिणति आधुनिक युग की भौतिक संपन्नता के रूप में रेखांकित की जाती है, जिस में बच्चा होश सँभालने के पहले ही माता-पिता की महत्वाकांक्षा का बोझ ढोने के लिए विवश हो जाता है और माता –पिता भी यह देखकर-सोचकर संतोष की साँस लेते हैं कि उनका बच्चा युगानुरूप ढलने के काबिल हो रहा है । बालसुलभ सहजता, सरलता, तरलता, चपलता अब कहानियों और बालगीतों की विषयवस्तु रह गई है । ‘जैसा बीज, वैसा वृक्ष और जैसा वृक्ष, वैसा बीज’ वाली कहावत आज ही नहीं, कभी चरितार्थ हुई ही नहीं, क्योंकि आप दशहरी आम की गुली अपने बगीचे में डाल दीजिए, पेड़ तो आम का होगा, पर फल दशहरी नहीं, वैसे ही जैसे मनुष्य का बच्चा मनुष्य हो, ज़रूरी नहीं है । आज प्रत्येक घर –परिवार, बस्ती ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति खंडित आस्थाओं को ढोने वाला एक यंत्र-मात्र रह गया है (जिंदगी चलती मशीनों की तरह है / आदमी टूटा हुआ औजार है अब,पृष्ठ-14), ऐसी ही परिस्थिति में गीत गाने की चाहत रखनेवाले अजय पाठक के गीतों को जाँचने-परखने के पहले उन्हें आत्मसात करना पहली शर्त है ।

यह सही है कि सब एक ही राह पर नहीं चल सकते, पर क्या यह भी सही नहीं है कि मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए संवेदना के आलावा और कोई रामबाण नहीं है ? और संवेदना है माँ की फटकार में, लोक की टेढ़ी नज़र में, जिससे व्यक्ति उचित –अनुचित सोचने करने के दोराहे पर मार्गदर्शन लेता है और दूसरी ओर उदास-हताश मनःस्थिति में माँ के हाथों का स्नेहिल स्पर्श, पिता के सांत्वना के दो बोल, गुरु का उपदेश, पत्नी का प्यार, यार-दोस्तों की सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार-सब के सब
मानो लंबी काली रात के बाद नए बिहान लगते हैं ।

कविता संवेदना की पुत्री ही नहीं, धात्री भी है, बेटी की परिणति क्रमशः बहन, पत्नी माँ, के रूप में होती है । गीत कविता का सर्वाधिक सशक्त किंतु कोमल रूप है, जिस में छंद उस की धड़कन है। ‘छंद’ तथाकथित बंधन या अनुशासन नहीं, वह सुसंगति, ताल, लय, संतुलन, और अनुपात का आधायक है, जिन में विराम में भी गति है, गति में स्पृहणीय विराम है, जिस से मर्यादा –भंग न होने पाए (“निर्धन होतीं मर्यादाएँ /कैसे हो निर्वाह कबीरा”-13)

साहित्य या किसी भी कला-प्रकार का परम उद्देश्य है –एक बेहतर दुनिया में एक बेहतर आदमी की रचना । बेहतर आदमी बने न बने, आदमी को आदमी बनाए रखना प्रत्येक युग की सब से बड़ी ज़रूरत है । गीत इस दिशा में अच्छी पहल है, जो मनुष्य युग की सब से बड़ी ज़रूरत है । गीत इस दिशा में अच्छी पहल है, जो मनुष्य की संवेदना को जगाए रखता है, क्योंकि बिना संवेदना के गीत-रचना संभव नहीं है । आज की दुनिया मनुष्य की मुट्ठी में है –संचार-सुविधाएँ इतनी अधिक हैं कि घर बैठे सारी दुनिया से बातचीत हो जाए अथवा कुछ ही घंटों में एक देश से दूसरे देश में पहुँच जाएँ, परंतु यह कैसी विडंबना है कि भौतिक निकटता आत्मिक दूरी को जन्म दे रही है (-“दूरियाँ कमतर हुईं, पर आज भी है / आदमी से आदमी अनजान यारो” – पृष्ठ 16)।

मानवीय संबंधों का सार है-प्रेम । प्रेम के बिना सारे रिश्ते-नाते यारी-दोस्ती दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं । प्रेम का अभाव ही विद्वेष या घृणा या नफ़रत में तब्दील हो जाता है और मनुष्य हिंस्र पशु से भी भयावह हो जाता है । घनानंद ने प्रेम का मार्ग अत्यंत सीधा बताया है, जहाँ थोड़ी भी चतुराई की गुंज़ाइश नहीं है, क्योंकि छद्माचरण प्रेम के लिए अभिशाप है (--“इस तरह रिश्ता निश्ता निश्ता निभाया दोस्तों ने / दुश्मनी बहतर लगी है दुश्मनों की-पृष्ठ 17)।

प्रेम-प्यार अनमोल धन ही नहीं, जीवन-रस है, जिस के बिना मनुष्य का, कीरी-कुंजर और वनस्पति-जगत भी निर्जीव प्रतीत होता है । जिस घर में हम रहते हैं, उसे दो-चार दिन बंद कर के देखिए, भूत-बँगला लगता है । लेखक की चिंता स्वाभाविक है कि अब प्रेम भी बिकने लगा (-“तब की बातें छोड़ो पाठक जी / अब नेहों का मनुहार बिका करता है” –पृ.21)। प्रेम का उदात्त रूप ही श्रद्धा और श्रद्धा का उदात्त रूप भक्ति है । मंदिर – देवालयों की संख्या पहले से अधिक हो गई रहै, परंतु वहाँ श्रद्धा गायब है (--“हाँ देवालय में देव विराजे हैं / भक्तों की भरमार दिखा करती है / लेकिन श्रद्धा से मुक्त पुजारी हैं /अब तो सेवा सत्कार बिका करता है” – पृष्ठ21)।

प्रकृति सदैव मानव की धात्री रही है । उस के कण-कण में प्रेम का संदेश है । एक ओर मरुस्थल का विस्तृत वक्ष सहिष्णुता-द्ढ़ता का पाठ प़ढ़ाता है, तो दूसरी ओर गुलाब के फूल काँटों से घिरकर भी मुस्कराने का दृष्टांत प्रस्तुत कर रहे हैं (-“भोर की उतर गई किरण / फूल –फूल मुस्करा दिए / बूँद ओस की ठहर –ठहर / नेह का पता बता गई” – पृष्ठ24)। कवि प्रेम के करलव से साक्षात्कार करता-कराता चलता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, वह धन-दौलत के बाहरी चकाचौंध में नहीं, वह अंदर, जहाँ पहुँचना सब के वश की बात नहीं है। कबीर-जैसे रागी जन बहुत पहले ही कह गए हैं, परंतु उन की रागीयता का मर्म समझे बिना जो, तथाकथित मायावी प्रेम की आग में कूद जाते हैं, वे नादान हैं (-“अपने मन की बात न समझ, कूद पड़े अंगारों पर / प्रेम लपट है जिसके भीतर आग बिछौना पाठक जी” – पृष्ठ27) ।

वैसे प्रकृति का साक्षात्कार करने से पहले प्रकृति को आत्मसात करना होता है, अन्यथा प्रकृति प्रकृति नहीं, विकृति दीखती है । यह कवि का उन्मुक्त हृदय और उस की उन्मुक्त दृष्टि ही है, जिस से उसे प्रकृति का सौंदर्य यथातथ्य संवेदित होता है (-“पात-पात झर गए ढाक के / वन-पलाश भी दहके। मदन चलाए बाण काम के / तन-मन बेसुध बहके । पुरवा गाए हौले-हौले / फागुन आया री । अधर सँधर सँजोए शब्द अबोले / फागुन आया री ।” –पृष्ठ30)।

यह प्रकृति –राग मानव-मन में मात्र अनुराग जगा कर समाप्त नहीं हो जाता, वरन् कवि को ‘विराग’ से भी परिचित कराता चलता है, जिस से वह चिंतनशील होकर कहता है (-“श्वेतवर्ण चंपा खिली मधुकर पहुँचा पास । अंतर-रस खाली मिला भँवरा हुआ उदास । चंपा बोली रे अलि, झूठी तेरी प्यास....फूल-फूल पर डोलता, तेरा क्या विश्वास ।” –पृ.40) । ‘विराग’ वास्तव में केवल ‘विगतराग’ नहीं, विशिष्ट राग भी है, क्योंकि अन्यथा व्यक्ति क्यों उस ‘अलभ्य’ से जुड़ाव का बयान करता (-“था कभी निर्बाध सागर-सा ह्दय में जल प्रवाहित । लोल लहरों के प्रकंपन से हुआ था मैं प्रभावित । रिक्त है सागर, मरुस्थल शबकेवल । बादलों का व्यर्थ-सा मनुहार लेर क्या करूँगा। पृष्ठ-54)।

डाँ. चित्त रंजन कर
अध्यक्ष,
साहित्य एवं भाषा- अध्ययनशाला,
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय,
रायपुर (छ,ग.)

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