Tuesday, August 08, 2006

अपनी बात

भावनाएँ जब रागमय हो जाती हैं, तब गीत का जन्म होता है । मनुष्य के भीतर अंतर्रात्मा नाम का एक अमूर्त तत्व होता है, ऐसी सब की मान्यता है । मेरा ऐसा मानना है कि अंतर्रात्मा नाम की यह बस्तु ही मनोभावों की जनक है, जो उसका पोषण भी करती है। अब चाहे यह संयोग के भाव हों, वियोग के अथवा हर्ष और अवसाद के, यह सारे भाव उपजते अंतर्रात्मा की उर्वर भूमि से ही हैं। मनुष्य वस्तुतःअपनी इसी अंतर्रात्मा का प्रतिनिधि है ।

गीतों के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि अनुभूतियों में उपजते भाव और राग का सम्मिश्रण ही गीत है, जिसकी अनुभूति रचनाकार, पाठक या श्रोता सभी को समान रूप से आंदोलित करती है ।

‘यादों के सावन’, ‘महुए की डाली पर उतरा बसंत’, ‘जीवन एक धुएं का बादल’ के प्रति आप सबके स्नेह ने मेरे सृजन को संबल दिया है, इसके लिए मैं आप सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहूँगा ।

‘गीता गाना चाहता हूँ’ में गीत भी हैं ग़ज़ल भी, साथ ही जीवन की विसंगतियों के साक्षात्कार से उपजी भावनाओं की शाब्दिक अभिव्यक्ति भी है । कुल मिलाकर इसमें वही सब कुछ है जिसे हम रोज जीते हैं और अनुभव करते हैं ।

यह संग्रह जिस रूप में आपके हाथों में है वह समेकित प्रयासों का फल है। पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में श्री दिवाकर राव ने बहुत सहयोग किया है, वहीं रचनाओं के परिमार्जन में मेरे साहित्यिक मित्रों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, मैं उन सबको धन्यवाद देना चाहूँगा । उन तमाम मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों का भी स्मरण करना चाहूँगा जिन्होंने इस संग्रह के प्रकाशन में अपनी जिज्ञासाजनित रूचि दिखलाई ।

जीव संगिनी रीता के अमूल्य सहयोग के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी बात यहीं समाप्त करना चाहूँगा ।

अक्षय तृतीया
11मई, 2005
अजय पाठक

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