Thursday, August 10, 2006

मूर्तियाँ

कुछ हमारी अर्चना को मान कर सम्मान देंगी,
यह समझ कर पत्थरों की मूर्तियाँ हमने गढ़ी थीं ।


कल्पना की छेनियों पर,
भावना सौ बार टाँके ।
स्वप्न देखे जा रहा था,
मैं नयी संभावना के ।


आज हम पर हँस रही थीं, मूर्तियाँ नवरूप लेकर,
और उनमें कुछ हमारी अस्मिता भी तो जड़ी थी।


दूब-अक्षत भी चढ़ाया,
अनवरत उनके चरण में ।
एक परिवर्तन न देखा,
किंतु उनके आचरण में ।


रेत पर निर्मित घरौदे का लहर से सामना था,
मह निरंतर ढह रहे थे, और वह निष्ठुर खड़ी थी।


सात जन्मों की निरर्थक,
शून्य होती वंदना है ।
पत्थरों में प्राण पहुँचे,
यह हमारी कल्पना है ।


आज मन के द्वंद्व सारे, कह रहे निर्द्वंद्व होकर,
सत्य वह साकार था, पर भावना उससे बड़ी थी ।


********************
By- www.srijangatha.com
********************

No comments: