Thursday, August 10, 2006

पंखों का विस्तार



पिंजरा बोला-रे सुआ !
मैं तेरा संसार।
अपने पंख सिकोड ले,
चाहे पंख पसार.....
पिंजरे से सुगना कहे.....
खोले कोई द्वार।
उस दिन तू भी देखना,
पंखों का विस्तार।

एक दिन पूछी मीन ने ,
नदिया से यह बात है,
तू भीतर तो शांत है,
उपर क्यों है क्लांत
नदिया बोली मीन से,
रे मेरी जलजात......
निकलेगी जब नीर से,
तो समझेगी बात....

प्राण कहे सुन आत्मा
दोनों में क्या मेल
मैं माया, मोक्ष है,
जोड़ी यह बेमेल ।
मन से बोली आत्मा,
यह विधना का खेल।
तन दियने की जोत है,
तुम बाती, हम तेल ।

श्वेत वर्ण चंपा खिली,
मधुकर पहुँचा पास ।
अंतर-रस खाली मिला,
भँवरा हुआ उदास।
चंपा बोली रे अली,
झूठी तेरी प्यास....
फूल-फूल पर डोलता,
तेरा क्या विश्वास ।

कविता बोली –ऐ कवि
तू कोमल सुकुमार ।
कैसे करता है मुझे,
शब्दों में साकार
कवि ने कविता से कहा,
सुन मेरी सुखसार ।
हम सबको स्वीकारते,
खुख-दुख करुणा-प्यार ।


*****************************
By- www.srijangatha.com
*****************************

No comments: