Thursday, August 10, 2006

घरौंदे की तरह

घरौंदे की तरह

तन-बदन है, शाख पर हिलते घरौंदे की तरह,
मन! वही बेसाख्ता, उड़ते परिंदे की तरह ।

बेतहाशा बोलती है, आज दिल में बुलबुलें,
चाहतों ने जाल फेंका, एक फंदे की तरह ।

देखता हूँ शोख परियों की नुमाइश दर-बदर,
सब्र अपने साथ है, पर नेक बंदे की तरह ।

दाम असली, काम नकली, फिर मुनाफ़े की फ़िकर,
प्यार भी अब हो गया है, एक धंधे की तरह

जानता हूँ मंज़िले-मकसूद-ऐ उल्फ़त मगर,
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ एक अंधे की तरह ।



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By- www.srijangatha.com
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