Thursday, August 10, 2006

परिचय

दावानल के बीच नगरिया....
चलकर आता-जाता हूँ ।
पीड़ा की अनवरत कथाएँ....
गीत व्यथा के गाता हूँ ।


मेरा मत आवाहन करना,
तुम विचलित हो जाओगे ।
मैं सपनों की चिता सजाकर,
उसमें आग लगाता हूँ ।

मृत्यु और मरघट तो मेरे ,
प्रतिपल के सहभागी हैं ।
सहज हमें स्वीकार सभी कुछ,
कह सकते हो, त्यागी हैं....

जीवन के उल्लास मधुरमय
विलग हुए बरसों बीते,
विचरण करता हूँ निर्जन में,
कांटों पर सो जाता हूँ ।

दुख में सुख की परछाई के,
अनुभव ही दिन-रात किए ।
उर में गहरी उत्कंठा के,
जलते हैं अनवरत दिए ।

प्यास-तृप्ति का भुक्ति-मुक्ति का,
साधक भी, साधन भी हूँ
मृगतृष्णा के मकड़जाल की,
उलझन को सुलझाता हूँ ।

पाने-खोने की चिंताओं
की बातों को कौन कहे ?
पाया तो निःशब्द रहे,
कुछ खोया तो भी मौन रहे ।

इसी तरह जीवन की नैया,
वही जग की धारा में।
मिले नेह की धार जहाँ पर,
मैं उसका हो जाता हूँ ।

मेरी निजता की समरसता-
में खोया है जग सारा ।
मैं जीता तो दुनिया जीती,
मैं हारा तो जग हारा ।

कटुता और हलाहल के स्वर
अपने अधरों से पीकर,
मधुर गीत की रचना करके,
दुनिया को बहलाता हूँ ।



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By- www.srijangatha.com
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