Thursday, August 10, 2006

मैं तपस्वी



मैं तपस्वी
स्वर्ण का उपहार,
लेकर क्या करूँगा
मैं तुम्हारे,
नेह का उपकार,
लेकर क्या करूँगा ?

था कभी निर्बोध सागर-सा
हृदय में जल प्रवाहित ।
लोल-लहरों के प्रकंपन,
से हुआ था मैं प्रबावित ।

रिक्त है सागर,
मरुस्थन शेष,
है अब रेत केवल ।
बादलों का व्यर्थ –सा,
मनुहार लेकर क्या करूँगा ?

आज पथ में जब चला हूँ,
साथ है निर्वाण मेरा ।
दूर पीछे कामनायें....
शेश है तो, प्राण मेरा ।

स्तवन करने चला हूँ,
मैं रुदन के देवता का,
मैं किसी के रूप का,
सिंगार लेकर क्या करूँगा ?

सत्य है कि साथ मुझको
भी हुई थी रंजना की ।
थाल कुंकुम का सजाया,
और जी भर वंदना की ।

प्राण का दीपक जला कर,
भाव-सुमनों से चढ़ाएँ ।
आज पिघले पत्थरों का,
प्यार लेकर क्या करूँगा ?

मन किसी निष्णांत की,
संकल्पना गढ़ने लगा है ।
तन उसी अज्ञात सीमा की,
तरफ बढ़ने लगा है।

मैं उऋण होकर चला हूँ,
मुक्त सारे बंधनों से ।
मौन हो या हो मुखर,
आभार लेकर क्या करूँगा ?


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By- www.srijangatha.com
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