Thursday, August 10, 2006

फूल पर अंगार देखा

रूप के लोभी नयन ने रूप का सिंगार देखा,
रंग के अभिलाषियों ने रंग का भंडार देखा ।
हम चमन के फूल से मिलते रहे बैरागियों से
और हमने आग देखी, फूल पर अंगार देखा।

हाँ कभी हम भी गये थे, पंख छूने तितलियों के,
मेघ सा मन कह रहा था साथ खेलें बिजलियों के ।
इस जतन में चार दिन की ज़िंदगी हमने गंवायी,
और दुनिया में लगा यह झूठ का बाज़ार देखा।

रात का अंतिम पहर था भोर तक हम भी जगे थे,
चाँदनी रस में घुली थी रूप के मेले सजे थे।
एक पल चेहरा दिखाकर छुप गया वह चादलों में,
आज बदला सा हुआ कुछ चाँद का व्यवहार देखा ।

हम समर्मण कर चुके थे भूलकर अस्तित्व सारा,
और जिसके सामने अपना सभी व्यक्तित्व हारा ।
गूढ़ अर्थो से भरी मुद्रा लिए वह देखती हैं,
आज हमने मूर्तियों का अजनबी व्यवहार देखा।

प्रेम के पथ पर दिखे उस हादसों से डर गए, हम,
क्या बताएँ किस तरह अवसाद ही से भर गए हम ।
राहगीरों का सभी कुछ लूटकर के जुल्म ढाती,
फूल-सी कोमल हथेली को लिए तलवार देखा ।


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By- www.srijangatha.com
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