Thursday, August 10, 2006

लोकतंत्र


जब तक
भूखे की रोटी का इल्हाम नहीं,
इंतज़ाम नहीं ।
दर-दर फिरते
बेकारों के हाथं को,
कोई काम नहीं ।


मेहनतकश लोगों के हाथो
मेहनत का वाजिब दाम नहीं ।
जब तक प्रतिभा का
यथायोग्य आदर,
उनका सम्मान नहीं ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
यह संविधान
इक धोखा है ।
निरर्थक बातों से भरा हुआ
केवल काग़ज़ का पौधा है ।

जब तक हत्यारे
संसद की कुर्सी पर
बेसुध सोयेंगे ।
हम लोकतंत्र की
लाशो को अपने
कंधे पर ढोयेंगे ।

जब तक प्रतिनिधि
बन कर यह ढोंगी
सज्जन का भेष धरायेंगे ।
यह नर-पिशाच्
मानवता की अस्थि
और मज्जा खायेंगे ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
संसद कचरे का डब्बा है
यह लोकतंत्र के माथे पर
गहराता काला धब्बा है ।

भारत के
मानसरोवर पर
कौवे जब तक
मंडारायेंगे,
हंसों के हिस्सों के मोती
ये मूरख चुगते जायेंगे ।

सब हंस व्यथाओं के चलते
जब रोयेंगे पछतायेंगे।
कौबों ने छोड़ दिया
जिसको,
उस जूठन को ही खायेंगे ।

तब तक यारों मैं समझूँगा
यह गंदा एक
अखाड़ा है ।
यह लोकतंत्र इक दलदल है ।
या फिर सुअर का बाड़ा है ।


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By- www.srijangatha.com
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