Thursday, August 24, 2006

थकी दुपहरी साँझ ढली रे


श्रम का सूरज अस्ताचल में,
बैठ गया जाकर सुस्ताने ।
दूर क्षितिज के तारा पथ से,
लगी चाँदनी आने-जाने ।
ठंडी-ठंडी वहा चली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे ।

लौट चले हैं थकन भुलाने,
परदेशी पंछी बेचारे ।
कलरव का नवताल मुखर है,
डाल-डाल बैठे हैं सारे ।
लगती यह गुंजार भली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे ।

राह-राह पर अब लगती है,
पगध्वनियों की आहट मद्धिम ।
जैसे तोड़ रहा है कोई,
साँसों की सीमाएँ अंतिम ।
मौन रही सुनसान गली रे,
थकी दुपहरी, साँझ ढली रे।


By- www.srijangatha.com

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