मृगनयनी के नयन कटीले,
कुंतल केश, सिंगार की ।
गुलशन गुलचें और गुलों की,
भंवरे और बहार की ।
महासमर में क्यों करता है,
बातें यह बेकार की ।
मृगनयनी के नयन कंटीले,
कुंतल केश, सिंगार की ।
सागर की लहरों पर उठता,
कैसा घोर उफान यहाँ ।
देख इधर आने को आतुर,
लगता है तूफ़ान यहाँ।
गिनता है क्यों आज लहर को,
चिंता कर पतवार की ।
हाथ मिलाने से क्या होगा ?
अपना सीना ठोंक ज़रा ।
अपनी ऊर्ज़ा संचित कर ले,
और समर में झोंक ज़रा ।
गीत अमन के फिर गा लेना,
बातें कर तलवार की ।
घर- घर में साहस का परचम,
गाँव, गली, चौबारों के ।
आशा के नवदीप जला दे,
चौखट पर अँधियारों के ।
अब चिंतन का समय कहाँ है ।
बेला है संहार की ।
किसी रूपसी के यौवनकी,
चर्चा करना व्यर्थ यहाँ ।
कोलहल में किसी गीत का,
रह जाता है अर्थ कहाँ ?
समर यहाँ घनघोर छिड़ा है,
मत कर बातें प्यार की ।
मृगनयनी के नयन कटीले,
कुंतल-केश, सिंगार की ।
By- www.srijangatha.com
No comments:
Post a Comment